रविवार, 13 मार्च 2016

DATIA DALPAT RAO KI (Datia ka Pramanik Itihas)

                                                                                                                            -सोम त्रिपाठी                                                                                           
          विषय प्रवेश-
                      मध्यकाल का इतिहास मुख्य रूप से फारसी ग्रंथों और गजेटियर्स के आधार पर लिखा गया। ब्रिटिश सरकार ने इम्पीरियल गज़ेटियर ऑफ़ इंडिया तथा  देशी रियासतों ने स्टेट गजेटियर् प्रकाशित किये। इससे  इतिहासज्ञों को  तिथि क्रम पर आधारित इतिहास लिखने में बड़ी मदद मिली। लेकिन स्टेट गजेटियर्स में जो इतिहास लिखा गया, वह स्थानीय शासकों की रूचि  तथा उनके जातीय गर्व के अनुरूप होने के कारण पक्षपातपूर्ण था। इस कमी को दूर करने के लिए १९४७ ई. के बाद प्रदेशों ने जिलों के गजेटियर्स प्रकाशित कराये जिन्हें डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर कहते हैं। लेकिन इन गज़ेटियर्स में भी तथ्यपरक सुधार नहीं हुए।
                       १८६९ ई. में ब्रिटिश सरकार ने इम्पीरियल गज़ेटियर ऑफ़ इंडिया को संपादित करने की जिम्मेदारी सर विलियम विल्सन हंटर को सौंपी थी। हंटर ने भारत के मध्यकाल का इतिहास संकलित करने का भार प्रसिद्द इतिहासकार इर्विन को दिया। उसने देशी रियासतों से इतिहास से सम्बंधित लेख मंगवाये। लाला छोटे लाल ने दतिया के राजा परीक्षत की सलाह से जो लेख भेजे वह इम्पीरियल गज़ेटियर में प्रकाशित हुए और बाद में  इसीके आधार पर  दतिया स्टेट गज़ेटियर का प्रकाशन हुआ जो दतिया का इतिहास बन गया।
बुंदेलखंड में दतिया राज्य- 
                           आगरा  से दक्खिन जाने वाला पुराना मार्ग ग्वालियर से आंतरी, नरवर, चंदेरी,  सिरोंज, सीहोर  होता हुआ मिर्ज़ापुर को स्पर्श करता है। इसके बाएं हाथ की तरफ का  जंगली भूभाग मध्यकाल में  बुंदेलखंड की सीमा था।  (History Of Aurangzeb -Jadunath Sarkar Vol. 1. Page 14 ) इसीप्रकार ग्वालियर होकर आंतरी, चांदपुर सुनारी से सिंध नदी पार कर भांडेर, एरच से इलाहबाद,पटना होकर बंगाल  की ओर  जाने वाले मार्ग के दाहिने हाथ की ओर बुंदेलखंड का जंगली भूभाग उसकी उत्तर-पूर्वी  सीमा थी। बुंदेलखंड की सीमा में  इन दोनों मार्गों को मिलाने वाला सिंध नदी के किनारे वाला  भू-भाग  सैनिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण था। १५१४ ई. में सिकंदर लोदी ने ग्वालियर पर अधिकार न कर पाने के कारण  नरवर से सिंध नदी को पार कर पहुज नदी के किनारे भद्रावती पर कब्जा किया और  वहां चौकी स्थापित कर एक मस्जिद का निर्माण कराया। इस तरह वह आगरा से इलाहबाद तक के मार्ग को अपने राज्य से जोड़ पाया। अकबर का ओरछा पर आक्रमण करने का मुख्य उद्देश्य इसी भू-भाग पर कब्ज़ा करने का था, जिसमें वह सफल हुआ। ओरछा के राजा मधुकर शाह के मरने के बाद उनके पुत्र वीरसिंह ने इसी भू-भाग को वापिस  लेने  के लिए मुग़ल फौजों से संघर्ष किया लेकिन वह सफल नहीं हो सके। अकबर के मरने के बाद जब जहांगीर बादशाह बना तब वीरसिंह देव ने इस पूरे भू-भाग पर अधिकार कर लिया।
 १६२७ में वीरसिंह देव के मरने बाद जुझार सिंह राजा बना तब  १६२८ ई. में शाहजहां ने ओरछा पर आक्रमण कर पहले ग्वालियर, सिरोंज होकर दक्षिण   जाने वाले मार्ग को सुगम  बनाने के लिए  करैरा पर कब्जा किया फिर उसने १६३५ में आक्रमण कर इलाहबाद की ओर जाने वाले भूभाग पर  कब्जा कर लिया। सैनिक दृष्टी से महत्वपूर्ण होने के कारण  उसने एरच की जगह  कटरा  (वर्तमान दतिया) को  सरकार (संभाग) का दर्जा देकर इसका नाम इस्लामाबाद रख दिया। इसमें नरवर से लेकर एरच तक का इलाका शामिल था।  (मसीर-उल-उमरा I पृ.  ३८१)
 १६८० ई. में जब औरंगज़ेब दक्षिण के विद्रोही मुसलमान  और मराठा शासकों  को कुचलने के लिए  चला गया और जीवनपर्यन्त वहीँ रहा तब  राजधानी से दूर रहने के कारण उसकी पकड़ उत्तर भारत में कमजोर पड़ गई थी। इस स्थिति का लाभ उठा कर दलपत राव ने इस पूरे भू-भाग पर अपना कब्जा कर पुराने किले के बीच में एक नए किले का निर्माण कराया औरंगज़ेब ने नए किले को तुड़वाने का  फरमान जारी कर दिया। यह और बात है कि वह अपने फरमान का पालन नहीं करा सका।  राजा दलपत राव का कार्यकाल में दतिया में  करैरा, अम्बारी, महौनी, बड़ौनी, एरच, सेंवढ़ा, भांसडा, दिहाइले, खदरवनी, सांखनी आदि  के इलाके थे। (बुंदेला शासकों की प्रशासनिक व्यवस्था -डॉ.संजय स्वर्णकार दस्तावेज क्र. १२ सं. १७६१ (१७०४ ई.) पृ. ३०८ ) ये वही इलाके थे जिसे  शाहजहाँ ने इस्लामाबाद में शामिल  किये थे। मुग़ल साम्राज्य के पतनोपरांत भी बुंदेला  शासक अपने आप को मुग़ल प्रतिनिधि कहते रहे। दतिया के राजा रामचन्द्र ने ओरछा और पन्ना के राजाओं के साथ सीमा सम्बन्धी समझौते करते हुए बादशाही जगा का उल्लेख कर अपना दावा किया था। (संजय स्वर्णकार   दस्तावेज क्र. ३३ और ३४) दतिया के किले के दरवाजे पर रखी तोप के  लेख में सबसे पहले बहादुर शाह जफ़र के पिता अकबर II का नाम खुदा हुआ है।
 दतिया पर मराठा आक्रमण होने पर १७४७ ई. में विवस होकर रानी सीता जू और इंद्रजीत ने एरच और करहरा का शेष प्रदेश झाँसी के मराठा राज्य को स्थाई रूप से दे दिया। (दतिया के बुंदेला राजा -डॉ. भगवानदास गुप्ता "श्याम स्मृति ग्रन्थ१" पृ.४३)   इसतरह दलपत राव  के द्वारा गृहीत  इस्लामाबाद  के भूभाग का क्षरण  होना शुरू हो गया।   
                                                     समय-काल के अनुसार नगरों  तथा स्थानों  के नाम बदलते रहते हैं। इतिहासज्ञ के लिए यह आवश्यक हो  जाता है की वह जिस कालखण्ड का इतिहास लिख रहा है उसे उस समय के स्थान के नाम के अलावा तत्कालीन भौगोलिक जानकारी हो। इसमें जरा सी चूक इतिहास की दिशा बदल देती  है। कभी कभी किवदंतियां जिनका इतिहास से कोई सम्बन्ध नहीं होता वह  इतिहास बना दी जाती हैं। इतिहास अपनी ही सामग्री से पूरी तरह मर्यादित रहता है। प्रमाण- सामग्री में घटा-बड़ी या मनमाना सुधार संभव नहीं है।  यह सर्वमान्य है कि पुरानी दतिया पास ही का ग्राम सिरोल थी और नई  दतिया के चारों ओर घना जंगल था। केशव के वीर चरित्र, लाहोरी के पादशाहनामा, शाहनवाज खान का मासिर-उल-उमरा,लाल कवि  के छात्र प्रकाश आदि ग्रंथो में दतिया का उल्लेख ग्राम सिर्रोल के पास बसी पुरानी दतिया के लिए है
                                    जिस तरह अकबर ने फतहपुर सीकरी को अपनी नई राजधानी निर्माण किया था, उसी तरह ओरछा के राजा बीरसिंह देव ने भी १६१८ ई. में अपनी एक नई राजधानी का निर्माण कराना शुरू किया। इस राजधानी में  दो दरवाजों वाला एक  किला, कई  भव्य महल, मंदिर, दो दरबार हाल तथा कई इमारतें  थीं तथा किले के बाहर कई बगीचे और तालाब थे ।  उस समय इसका कोई नाम नहीं रखा गया था। लेकिन  इसके निर्माण में हजारों की संख्या में कारीगर लगे हुए थे, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए एक बाजार लगने लगा था।  बाजार को फ़ारसी भाषा में कटरा कहते हैं इसीलिए इस नए नगर को कटरा के नाम से जाना जाने लगा। आज भी दतिया के बड़ा बाजार में स्थित हनुमान जी के मंदिर को कटरा के हनुमान के नाम से पुकारा जाता है। १६२७ ई. में बीरसिंह देव की  मृत्यु हो गई। उस समय  इसका ८०% भाग ही पूरा हो पाया था तब से २०% भाग  आज तक अधूरा ही है। शाहजहां ने विजयोपरांत  उपयोग और सुरक्षा  के लिए  तेजी से जो निर्माण कराया वह आज भी  पुराने महल में अलग दिखाई देते हैं।  दलपत राव (१६८३-१७०७) जिनका  मूल नाम दिलीप सिंह था (Ruka`at-i- Alamgiri. Letter-CLXIL) ने अपने नाम पर दिलीपनगर बसाया था। शासकीय दस्तावेजों में १८९० ई. तक दिलीपनगर का प्रयोग  होता रहा परन्तु १८१६ ई. में हेनरी स्लीमन ने अपनी पुस्तक  "Rambles and Recollections of an Indian official  में सबसे पहले दिलीपनगर की जगह दतिया का उल्लेख किया। धीरे-धीरे दिलीपनगर का लोप हो गया और दतिया प्रचलन में आ गया। । इसी तरह तमाम साक्ष्यों के आधार पर पुरानी भांडेर वर्तमान इन्दरगढ़ थी और वर्तमान भांडेर का पूर्व नाम भद्रावती या भड़ोल था।  (मध्य प्रदेश टूरिस्ट एटलस, प्रकाशक- इंडियन मैप सर्विस जोधपुर पृ. २५) 
शाजहाँ का बुंदेलखंड पर आक्रमण १६२८ का तिथिक्रम -
  1. २८ फरवरी १६२८  शाहजहां आगरा में गद्दी पर बैठा।  जुझारसिंह की गैरमौजूदगी में उसे ४००० जात                                   और ४००० सवार का मनसब दिया। (लाहोरी का पादशाहनामा अंग्रेजी में अनुवाद डा.                               हामिद अफाक कुरैशी पृ.३८)
  2. १३ अप्रैल १६२८   जुझारसिंह का आगरा आगमन। शाहजहां ने सम्मानित किया। (वही पृ. ४४)  
  3. ११ जून १६२८      गिरफ्तारी का संदेह होने पर जुझारसिंह आगरा से भागकर ओरछा आये। (पृ. ४५)
  4. २६ जून १६२८      जुझारसिंह के छोटे भाई भगवानदास को १००० जात ६०० सबार का मनसब (पृ ४६)
  5. २९ जून १६२८      जुझारसिंह के छोटे भाई पहाड़सिंह को १००० जात ८०० सबार के मनसब से बढ़ाकर                               ३००० ज़ात २००० सवार का मनसब दिया। (पृ. ४६) 
  6. "       "     "          ओरछा पर आक्रमण के लिए महावत खान के साथ भगवानदास बुंदेला गए (पृ ५८)  
  7. "     "       "          एरच पर आक्रमण करने के लिए पहाड़सिंह को भेजा और शाहजहां स्वयं                                               शिकार के लिए उस दिशा में गया जहाँ से जुझारसिंह भागे थे। (पृ. ५९ )
  8. २७ दिसम्बर       शाजहाँ ने ग्वालियर के पहले पड़ाव डाला। पृ ६० 
  9. ३०     "               महाबत खान के अनुरोध को स्वीकार कर जुझारसिंह को माफ़ कर दिया। पृ ६० 
  10. ७ फरवरी १६२९  शाहजहां ग्वालियर में ३३ दिन रुक कर आगरा पहुंचा। 
  11. १४   "          "      महबत खान ने जुझारसिंह को गले में धारीदार सूती कपड़ा बांध तथा दोनों हाथ                                       पकड़ कर शाहजहां के सामने पेश किया। शाहजहां ने उसे क्षमा कर दिया।  पृ 
  १६३५ के आक्रमण का तिथि क्रम 

  1.        मई        शाहजहां ने सुन्दर खबरी के द्वारा जुझारसिंह को फरमान भेजा कि तुम गड़ा को मुग़ल                      अधिकारियों को सौंप दो। यदि तुम इसे अपने पास रखना चाहते हो तो उतनी जागीर अपने                        राज्य में से मुगलों को दो और प्रेमनारायण के १० लाख रुपये खजाने में जमा करो।
  2.         "           जुझारसिंह ने अपने लड़के विक्रमाजीत को बुला लिया जो बालाघाट में महाबत खान के                         साथ था। उसका पीछा मुग़ल सेना के साथ पहाड़सिंह बुंदेला और चद्रमन  बुंदेला ने किया। 
  3.                                                                                                             

शाहजहां जब दक्षिण के लिए रवाना हुआ तब उसे यह सलाह दी गयी कि वह बुंदेलखंड के विजित प्रदेश को भी देखता चले।  इसी तारतम्य में  ८ नवम्बर १६३५ को डबरा पहुंचा,  वहां से वह धूमघाट (धूमेश्वर) गया। धूमघाट में  ठहराने की व्यवस्था न होने के कारण वह पुनः डबरा आ गया।  डबरा में  ४ दिन रुककर   १९ नवम्बर १६३५ को दतिया आ गया। यहां उसे मालुम हुआ की दतिया के  जंगल और कुओं में जुझारसिंह का खजाना  दबा हुआ है। शाहजहां ने मकरमत खान, बाकी खान और इशाक खान को खजाने की खोज का हुक्म दिया। इसी दौरान  २२ नवम्बर को उसे गुप्तचरों ने झाँसी के किले को जीतने का समाचार दिया तब उसने उन्हें  झाँसी के किले की व्यवस्था देखने के लिए भेजा और स्वयं २६ नवम्बर को ओरछा पहुंचा।  यहां यह बात ध्यान देना वाली है कि ओरछा का मार्ग झाँसी के बाद मात्र १० कि.मि. दूर है, तो फिर शाहजहां किस ओरछा को गया था ? वास्तविकता यह है कि २६ नवम्बर को शाहजहां ओरछा नहीं कटरा (वर्तमान दतिया) गया था। (लाहौरी से यह भूल इसलिए हुई है कि वीरसिंह देव के निर्माणाधीन किले के आस-पास कोई बस्ती नहीं थी और न  ही उसका  कोई नाम था किन्तु  यह किला ओरछा राज्य के अंदर था। दूसरी बात यह  है कि शाहजहा ने १६४५ में लाहोरी को   पटना से बुला कर अबुल फजल की शैली में बादशाहनामा लिखने के लिए   नियुक्त किया था।  उसने प्रथम १० साल के शासन का वर्णन इतिहासकार काज़वीनी के इतिहास तथा अन्य अधिकारियों से जानकारी प्राप्त कर लिखा। ऐसी स्थिति में भूल होना स्वाभाविक है।)२७ नवम्बर को शाहजहां ने ग्राम अगोरा में वीरसिंह देव के द्वारा  बनबाए वीर सागर तालाब के किनारे पड़ाव किया।  यहां उसने शिकार  खेलते  हुए तीन दिन गुजारे। ३० नवम्बर को उसने दिनारा के  तालाब  समुद्र सागर  के किनारे पड़ाव किया। यहाँ वीरसिंह देव का बनवाया एक पुल (बाँध) था जिसके किनारे से जलप्रपात गिरता था।  ५ दिसम्बर को मक्रमत खान, बाकी खान और इसाक खान ने जुझार सिंह के गढे खजाने के ८ लाख रुपये शाहजहां को भेंट किये। २१ दिसम्बर को दक्षिण जाने के लिए शाहजहां  सिरोंज पहुंचा। सिरोंज होकर दौलताबाद जाने के लिये`शाहजहां ने  ४ जनवरी १६३६ को नर्वदा नदी पर कर दूसरे किनारे पर पड़ाव किया और यहीं उसने दरबार लगाया। १४ जनवरी की रात को खान दौरान आया और उसने शाहजहाँ के सामने जुझारसिंह की महिलाओं और उसका लड़का दुर्गभान और नाती दुर्जन सिंह को पेश किया। शाहजहां ने इन्हें मुसलमान  बना कर अब्दुल्ला फिरोज जंग के सुपुर्द कर दिया।   (Lahori`s Padshahnamah Vol. 1 Translated by - Dr.       HamidAfaqSiddiqi228-229)                                  बादशाहनामा में औरंगज़ेब के नेतृत्व में सैयद खान-ए-जहां, अब्दुल्ला खान फ़िरोज़ जंग और खान दौरान के साथ ओरछा के किले में प्रवेश का चित्र संलग्न है, लेकिन  चित्र ओरछा का  नहीं दतिया का  हैं-


  1. चित्र में बायीं  ओर पहाड़ी पर स्थित  पुराना महल है। 
  2. बीर सिंह देव के महल के बगल में विशाल और भव्य मंदिर था। चित्र में मंदिर की शिखर दिखाई दे रही है।  (मासिर-उल-उमरा Vol. i pp. 424 ) शाहजहां ने उसे तुड़वाकर उसकी जगह एक मस्जिद बनवा दी थी (Abdul Hamid I.B. 121-122 , History Of Aurangzib -J. N. Sarkar  Vol. 1 pp. 29 ) महल के बगल में वर्तमान में मस्जिद है जिसे चौपाल की मस्जिद कहते हैं। मंदिर की खण्डित  प्रतिमाएं तथा महराब आदि महल के पास स्थित विजय काली के मंदिर में आज भी रखे हैं जिन्हें दर्शनार्थी  पूजते हैं। 
  3. चित्र में दाहिनी ओर पहाड़ी पर जो महल हैं उनकी गुम्मदें नील रंग की हैं। इस  महल को भारतगढ़ कहते हैं और उसकी नीले  रंग की गुम्मदें  गिर गई हैं किन्तु नीली टाइल्स वाली  गुम्मदें  खंडहर के रूप में आज भी जमीन पर पड़ीं हैं। 
  4. चित्र के दाहिने ओर वीर सिंह देव का दरबार हॉल  दिख रहा है। बाद  में  इस दरबार हाल के ऊपर महाराजा विजय बहादुर ने  शिखर का  निर्माण किया और  उसमें राजा के बैठने के कक्ष में भगवन राम की परिवार सहित प्रतिमाएं पधार कर  विजय राधव जी के मंदिर में परिवर्तित कर दिया।  शाहजहां जब यहां आया तो  वह  यहाँ के दरबार हांल  की संरचना से इतना प्रभावित हुआ की उसने इसी तरह के दरबार हाल आगरा, दिल्ली और लाहौर में बनबाये।   
  5. चित्र में किले के सामने मैदान में औरगजेब, खान दौरान और अब्दुल्ला खान घोड़ों पर अपनी सेना की साथ दिख रहे हैं वह मैदान दतिया का है, चित्र में दर्शित सारा निर्माण बीर सिंह देव ने कराया था, इसके पहले यहां जंगल था।   ओरछा में किले के सामने मैदान नहीं है। वहां पर रामराजा का मंदिर, चतुर्भुज का मंदिर, महल और बस्ती हैं। 
  6. किले का परकोटा ध्वस्त हो गया है किन्तु परकोटे के बुर्ज और रर  के अवशेष दतिया नगर के बीचों-बीच आज भी मौजूद हैं। 
     7. मुग़ल  सेना ने कुम्हेंडी की और से किले के दाहिने दरवाजे पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की थी।  चित्र            में दाहिनी ओर का दरवाजा  टूटा हुआ है।
     8. विजयोपारंत किले के दो भाग कर दिए थे। दाहिनी ओर का भाग  देवी सिंह को मिला।  उसने इस भाग             का नाम अपने पिता के नाम पर भरतगढ़ रख दिया था। देवी सिंह के वंशजो का भरतगढ़ पर आज भी              कब्जा है।
    9.    बायीं ओर का भाग मुगलों ने अपने पास रखा जिसमें पुराना महल, पुराना जेल, मुड़िया महल आदि                  इमारतें हैं और  इसका दीवान अब्दुल्ला खान फ़िरोज़ जंग को बनाया।
    10.  वीरसिंह देव के महल के बगल में मंदिर को तोड़कर जिस मस्जिद का निर्माण किया था उस मस्जिद के            एक भाग में अब्दुल्ला खान फ़िरोज़ जंग के बंशज आज भी निवास करते हैं तथा  दीवान कहलाते हैं।       
 मुगलों की प्रशासनिक व्यवस्था
                      मुग़ल साम्राज्य दो भागों में बंटा हुआ था।  पहला केंद्र शासित भाग।  इसमें कई सूबे थे जिनका प्रशासन बादशाह के हाथों में था, वही जागीरदारों और अधिकारियों की नियुक्ति करता था, और दूसरा वतन जागीरें में। ये वतन जागीरें तीन तरह की थीं- १. ये जागीरें प्रति वर्ष राज्य कर अदा करतीं थीं और बादशाह के हुक्म से युद्धों में भाग लेतीं थीं और विजयोपरांत इनके राजा पुरुष्कृत होते थे। २. ये रियासतें कोई राज्य कर अदा नहीं कतई थीं लेकिन युद्धों में बादशाह की और से भाग लेतीं थीं। इनमें बुंदेलखंड के अलावा राजस्थान की बड़ी रियासतें थी। ये रियासतें इतनी शक्तिशाली थीं कि यदि वे तीन एक साथ हो जाएँ तो मुगलों को परास्त कर सकतीं थीं। ३. ये रियासतें कोई राज्य कर अदा नहीं करतीं थीं, न मुगलों का हुक्म मानतीं थीं।  उलटे युद्ध में भाग लेने के लिए ये मुग़लों से धन बसूलतीं थी। इनमें गंगा के किनारे से  बंगाल तक के  पठान शासक थे। ये बहादुर लड़ाके थे मुग़ल साम्राज्य के पूर्व से बसे हुए थे। (Francois Bernier : An Account of india and Great Moghal, 1655 CE)
पुराने महल के स्थल साक्ष्य -

  1. महल के प्रवेश द्वार के पहले एक चबूतरे पर १६ सीढ़ियां बनी हैं। यह दलपत राव के राज्य के १६ परगनों का प्रतीक है। इस तरह की सीढ़ियां वर्तमान किले के अंदर भी हैं। 
  2.  

       
दतिया के शासक 
  1.  वीरसिंह देव बुंदेला १६१८-१६२७   माघ सुदी ५ विक्रम संवत १६७५ तद्नुसार दिनांक ५ दिसंबर                                                                  १६१८ ई.बसंत पंचमी को दतिया नगर की नींव रखी। 
  2. जुझारसिंह             १६२७-१६३५  वीरसिंह देव की मृत्यु के बाद ओरछा के राजा बने। उस समय दतिया                                                      ओरछा राज्य में थी।  
  3. अब्दुल्ला खान        १६३५-१६३९  शाहजहां ने ओरछा जीतने के बाद दतिया का इलाका मुग़ल साम्राज्य फ़िरोज़ जंग                                 में मिलाने के बाद अब्दुल्ला खान को यहां का दीवान नियुक्त किया। 
  4. भगवानदास बुंदेला १६३९-१६४०   शाहजहां ने दीवान नियुक्त किया। 
  5. पहाड़सिंह बुंदेला     १६४०-१६५६  एक राजपूत द्वारा भगवानदास का क़त्ल कर देने के बाद शाहजहां ने                                                     अग्रिम व्यवस्था होने तक के लिए दतिया का प्रभार ओरछा के राजा                                                       पहाड़सिंह को सौंप दिया था।
  6. शुभकरण बुंदेला १६५६-१६८३      शाहजहां ने दीवान नियुक्त किया। 
  7. दिलीपसिंह         १६८३-१७०७     दलपत एवं राव की उपाधि मिली, इसीलिए ये दलपत राव के नाम से   (दलपत राव)                              प्रसिद्द हैं। 
  8. राव रामचंद्र        १७०७-१७३६ 
  9. राजा इंद्रजीतसिंह १७३६-१७६२  शाहआलम के समय मुग़ल साम्राज्य लगभग समाप्त हो चुका था,                                                        उसका राज्य लाल किले से पालम तक ही शेष था। वह नजराना लेकर                                                    उपाधियाँ बंटता था।  इंद्रजीतसिंह ने भी उससे नजराना देकर राजा की                                                     उपाधि प्राप्त की। 
  10. राजा शत्रुजीत     १७६२-१८०१ 
  11. राजा परीक्षत      १८०१-१८३९ 
  12. राजा विजय बहादुर १८३९-१८५७ 
  13. महाराजा भवानीसिंह १८५७-१९०७ 
  14. महाराजा गोविंदसिंह  १९०७-१९४७ 


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