दीवान ऐनउद्दीन और दतिया का जन आंदोलन
- सोम त्रिपाठी
दतिया का जन आंदोलन १९४६ आज इतिहास के हाशिए पर चला गया है। किन्तु एक समय था, जब पूरे देश में इसकी चर्चा थी। कांग्रेस के मेरठ अधिवेशन १९४६ में यह चर्चा का विषय बना हुआ था। २८ नवंबर १९४६ के दैनिक सैनिक के अंक में "दतिया एक मिसाल है" के शीर्षक में लिखा था कि पं. जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने यह बताया था कि "ब्रिटिश साम्राज्यशाही की वफादार नौकरशाही और मुस्लिम लीग हम-प्याला और हम-निबाला हैं...... इसकी सबसे ताजा मिसाल दतिया राज्य की घटना है।" वास्तव में कांग्रेस का असहयोग आंदोलन इतना सफल नहीं हुआ था, जितना कि दतिया का जन आंदोलन। इस आंदोलन में स्टेट के पूरे व्यवसाइयों ने अपने प्रतिष्ठान बंद रखे, स्टेट के सारे कर्मचारियों ने अपने त्यागपत्र दिये और पूरी जनता जिसमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, ने क्राउन पुलिस की लाठियां खायीं और गिरफ्तारियां दीं थीं। इतना सब होने के बाद भी आंदोलन पूरी तरह अहिंसक और अनुशासित रहा। लोगों को आश्चर्य था कि आंदोलन की इतनी परिपूर्ण व्यवस्था की तैयारी कब कैसे और किसके द्वारा की गई ? यह पूर्ण रूप से जनता के लिए, जनता द्वारा संचालित था। आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले प्रेमनारायण सिलारपुरिया जी ने कहा है कि "आंदोलन क्यों हुआ और उससे क्या उपलब्धि हुई ये दोनों बातें इतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं कि उन पर विशेष प्रकाश डाला जावे।" जबकि कारण मुख्य है, आंदोलन तो मात्र उसकी प्रतिक्रिया थी। आंदोलन के कुशल संचालन का भी अपना एक महत्त्व है जिसकी वजह से उपलब्धि प्राप्त हुई।
ऐनुद्दीन बगदादी का लघु संस्करण था, उसका उद्देश्य दतिया रियासत को इस्लामिक स्टेट बनाना था। दतिया का अभूतपूर्व आंदोलन ही था जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ने कंधे से कन्धा मिला कर भाग लिया जिसके कारण ऐनुद्दीन अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका।
१९४१ में दतिया के राजा गोबिन्द सिंह के करीबी रघुनाथ सिंह भ्रष्टाचार के आरोपी थे। उन्हें बचाने के लिए राजा ने पोलिटिकल एजेंट की सलाह के बिना रियासत के दीवान हशमत अली को हटा कर उसकी जगह काउन्सिल के एक स्थानीय सदस्य की नियुक्ति कर दी थी। इसकी जानकारी पोलिटिकल एजेंट मेजर हेनरी पौल्टोन को मिली तो वह दतिया आया और उसने राजा को समझाया कि उसकी पूर्व सहमति के बिना किसी भी तरह का बदलाव नहीं किया जा सकता। लेकिन महाराजा ने अली को बहाल करने से साफ़ मना कर दिया। इसके बाद रेजिडेंट फिशर ने गोबिन्द सिंह को मुलाकात करने को कहा, लेकिन गोबिंद सिंह ने अपने पुत्र की बीमारी का बहाना बनाकर मिलने से मना कर दिया। फलस्वरूप फिशर ने स्टेट के वित्तीय मामलों का ऑडिट एवं ब्रिटिश प्रतिनिधि की सलाह न मानने की सिफारिश कर दी। सितम्बर १९४१ के अंत में मजबूर होकर महाराजा को पौल्टोन से समझौता करना पड़ा। समझौते के अनुसार वह ४ अवांछनीयों को सेवा से हटा देंगे और अली की जगह जिसे पोलिटिकल अथॉरिटीज सुनिश्चित करेगी, अस्थाई रूप से नियुक्त कर देंगे । २९ सितम्बर को अली की जगह राव बहादुर लेले दीवान बनकर दतिया आये। एक सप्ताह के बाद पौल्टोन को मालूम हुआ कि ४ अवाँछनीयों को निकालने का आदेश तो पारित हो गया था, लेकिन उन्होंने न तो चार्ज दिया और न ही दतिया छोड़ी। इसके अलावा लेले को ३० सितम्बर से ४ अक्टूबर तक सेवा में ही नहीं लिया।
दुर्भाग्य से १ अक्टूबर १९४१ को दशहरे के अवसर पर आयोजित समारोह में महाराजा की अक्षमता का प्रकरण घटित हो गया। जब गोबिन्द सिंह और उनके मेहमानों ने अत्यधिक मदिरा पान कर सार्वजनिक रूप से ध्रांगधा एवं झालावाड़ के महाराजाओं को शर्मनाक तरीके से अपमानित किया और शाम को आयोजित दरबार में सुपरिंटेंडेंट आफ पुलिस को खुलकर गालियां दी। फलस्वरूप फिशर ने फिर से नई सिफारिशें की, जिसे ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार कर लिया। उसके अनुसार गोबिंद सिंह से लिखित में पूछा जाये कि - एक नए दीवान की नियुक्ति की जायेगी जो राज्य के प्रशासन का संचालन करेगा (यद्यपि महाराजा को महल और शिकार के प्रबंधन में कुछ अधिकार होंगे) महाराजा को अलग से बुराईयों की एक सूची को स्वीकारनी पडेगी। महाराजा दीवान को आदेश नहीं दे सकेंगे, लेकिन वे रेजिडेंट और पोलिटिकल एजेंट को राज्य के मामलों के बारे में सूचित और परामर्श कर सकेंगे। इन शर्तों को गुप्त रखा जायेगा ताकि जनता का कोई हस्तक्षेप न हो। यदि गोबिंद सिंह इसके लिए तैयार नहीं हुए तो उनकी राज्य करने की क्षमता का आंकलन करने के लिए एक आयोग का गठन किया जाएगा। इन संशोधित शर्तों को गोबिंद सिंह ने १५ नवंबर १९४१ को लिखित में स्वीकार कर लिया।
इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी दीवान और गोबिंद सिंह का टकराव ख़त्म नहीं हुआ। जनवरी १९४२ में लेले की जगह नए दीवान देवी सिंह आये। उनसे भी टकराव हुआ तो अंत में फिशर को प्रतिवेदन देना पड़ा कि - " the pulse of the Datia State is beating very feebly at present, and it is thought that His Excellency`s recent decision to take over control of this Administration has come at a most opportune time" तमाम विचार-विमर्श के बाद ब्रिटिश सरकार ने यह निर्णय लिया कि देवी सिंह की जगह एक शक्तिशाली दीवान की नियुक्ति की जाये जो महाराजा पर नियंत्रण रख सके। अंग्रेजों की दृष्टि में इस तरह का सबसे उपयुक्त दीवान ऐनुद्दीन था। ऐनुद्दीन जब कांकोरी-ट्रैन-डकैती केस का स्पेशल जज था, तब उसने सी.आई.डी. के डिप्टी एस.पी. खान बहादुर तसद्दुक हुसैन से मिलकर केस को इतना उभारा कि उसमें रामप्रसाद बिस्मिल, अश्फ़ाक़उल्ला खान सहित ४ को फांसी, २ को कालापानी, शेष १६ व्यक्तियों को ३ साल से लेकर १४ वर्ष की सजाएँ हुईं थीं। और जब वह चरखारी का दीवान बना तब उसने वहां के राजा को पद्च्युक्त करा दिया था। इसके आलावा उसने कांकोरी प्रकरण में मुसलमान होने के नाते अश्फ़ाक़उल्ला को फांसी से बचाने के लिए अपना एक आदमी उसे सरकारी गवाह बनाने के लिए भेजा। लेकिन अश्फ़ाक़उल्लाह ने सरकारी गवाह बनने से इंकार कर दिया और कहा कि "कम से कम एक मुसलमान को तो अपनी मातृभूमि पर शहीद हो जाने दो।"
इसका कारण कुछ भी हो लेकिन ऐनुद्दीन के दतिया आने पर गोबिन्द सिंह अपना अधिकांश समय सेंवड़ा में व्यतीत करने लगे थे। इस स्थिति का लाभ उठाकर ऐनुद्दीन ढाई साल तक अपनी मनमानी करता रहा। उसने अपने बरिष्ठ अंग्रेज अधिकारी रेजिडेंट, पोलिटिकल एजेंट आदि को अपनी वाकपटुता से प्रभावित कर लिया और प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए रियासत के डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट, सिटी मजिस्ट्रेट, चीफ रेवेन्यू ऑफीसर, कस्टम सुपरिंडेंट, आदि प्रमुख पदों पर अपने सजातीयों को बाहर से बुलाकर नियुक्त कर दिया।
ऐनुद्दीन ने नगर के कुछ कट्टरपंधी मुसलमानों का एक गुट बनाकर अंजुमने-इस्लामियां नाम का एक सांप्रदायिक संगठन खड़ा किया । इस संगठन के माध्यम से मुसलमानों में कट्टरता का प्रसार और दलित हिन्दुओं, का धर्म परिवर्तन कराने की योजना बनाई। किन्तु अम्बेडकर की विचारधारा को मानने वाले दलित हिन्दू धर्म परिवर्तन के खिलाफ थे, इसीलिए उसकी यह योजना सफल नहीं हो पाई। फिर भी वह भटियारा मोहल्ला दतिया के खटीकों का धर्मांतरण करने में सफल हो गया । (इसकी सूची १९५१ की दतिया नगर की वोटर लिस्ट में देखी जा सकती हैं, जिसमें मतदाता के नाम तो मुसलमानी हैं किन्तु उनके पिता के नाम हिन्दू अंकित हैं।)
आतंक स्थापित करने के लिए ऐनुद्दीन ने विकास के नाम पर दतिया नगर का एक ऐसा मास्टर प्लान तैयार कराया जिसमें उसने एक ओर तो मस्जिदों और मजारों का निर्माण तो दूसरी ओर हिन्दुओं के मकानों, दुकानों के आलावा बड़ी संख्या में मंदिरों को तुड़वा दिया। यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि पीढ़ियों से रियासत में हिन्दू और मुसलमान इस तरह मिल-जुल कर रह रहे थे कि मानो रियासत में चार वर्ण न होकर पांच वर्ण हों। सब एक दूसरे के तीज-त्योहारों को बड़े उत्साह के साथ मनाते थे, उनमें भेदभाव का कोई भाव नहीं था। लेकिन जब ऐनुद्दीन ने मंदिरों को तुड़वाया तब हिन्दू और मुसलमान दोनों को बुरा लगा, क्योकि यह उनकी परम्परा के खिलाफ था, लेकिन वे वेवस थे।
विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद १९४५ में ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी। यह सरकार भारतीय स्वतंत्रता की पक्ष में थी। उसने १९४६ में प्रांतीय विधान मंडलों के चुनाव कराये। इसी क्रम में देशी राजाओ पर लगे प्रतिबन्ध भी हटा लिये। फलस्वरूप मार्च १९४६ में अंग्रेजों ने महाराजा गोबिन्द सिंह की शक्तियों पर लगे प्रतिबंधों को उठा लिया था।
१६ अगस्त १९४६ को मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस का आह्वान किया। दतिया में इसका प्रभाव पड़ा और अंजुमने-इस्लामियां ने एक आमसभा का आयोजन किया और उसमें हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करते हुए खुलकर गालियां दी।
दतिया की जनता ने सत्ताधारियों के अत्याचारों को हमेशा सहा है, कभी विरोध नहीं किया, लेकिन लार्ड रीडिंग हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक केसवराव रामचन्द्र चिकटे यह सहन नहीं सके। और उन्होंने दतिया के इतिहास में पहली बार ऐनुद्दीन की मनमानी का सार्वजनिक रूप से विरोध करने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने शिष्य रामरतन तिवारी, भैयालाल व्यास आदि को आंदोलनं करने का निर्देश दिया। नगर में एक विशाल आमसभा हुई जिसमें ऐनुद्दीन के कारनामों का विरोध करते हुए हिन्दू-मुसलमान, दलित- सामान्य सभी की एकता पर बल देते हुए शांति और अहिंसा के साथ आंदोलन करने का आह्वान किया।
इसी बीच ६ से ८ अक्टूबर १९४६ को प्रजा मण्डल की ओर से एक त्रिदिवसीय अधिवेशन हुआ, जिसमें बाहर से आये पंडित परमानंद, स्वामी स्वराज्यानन्द, भरतपुर के मौलवी अहमद, आगरा के गोपाल नारायण शिरोमणि, लालाराम बाजपेई आदि नेताओं ने उत्तरदायी शासन की मांग करते हुए ऐनुद्दीन के कारनामों की आलोचना की।
२४ अक्टूबर से २६ अक्टूबर १९४६ तक मड़िया के महादेव व नगर के कई मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ा तथा अपमानित किया गया। इन सारी घटाओं का सूत्रधार ऐनुद्दीन ही था। उसका उद्देश्य हिन्दू मुसलमानों के बीच दंगा कराना था, लेकिन वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाया। इसके विपरीत दतिया के हिन्दू और मुसलमान उसके विरोध में एक साथ खड़े हो गए। यह स्थिति ऐनुद्दीन के लिए अप्रत्याशित थी, वह स्वयं कटघरे में खड़ा हो गया था। इसीलिये उसने अपने वचाव के लिए सारा दोष हिन्दुओं पर मढ़ते हुए रेजिडेंट को अपना त्यागपत्र भेज दिया। साथ में रेजिडेंट और पोलिटिकल एजेंट को यह विश्वास दिलाने में भी सफल हो गया कि दतिया में मूर्तियों की तोड़फोड़ आदि घटनाएँ उसके खिलाफ हिन्दुओं के द्वारा रचा गया एक षड्यंत्र था। इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने उसका त्यागपत्र अस्वीकार करते हुए महाराजा गोबिंद सिंह को धमकी देकर आंदोलनकारियों पर सबसे कड़ी कार्यवाही करने तथा ऐनुद्दीन की रक्षा करने का भार सौंप दिया।
अभी तक चिकटे साहब परोक्ष रूप अपने शिष्यों को अहिंसक, और शांति पूर्वक आंदोलन चलाने के निर्देश देते रहते थे, किन्तु अब परिस्थितियां गंभीर हो गईं थीं। इसीलिए उन्होंने आंदोलन में सक्रिय भाग लेने का निर्णय लिया और मड़िया के महादेव पर अनशन पर बैठ गए। चिकटे साहब के अनशन पर बैठते ही नगर में बाजार बंद हो गया और नगर के सारे मजदूरों ने आंदोलन के समर्थन में अपना काम बंद कर हड़ताल कर दी। हड़ताल की सूचना पाकर नौगांव से पोलिटिकल एजेंट विलियम एगर्टों दतिया आया। ५ नवंबर को महंत दशरथिदास के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल पोलिटिकल एजेंट से मिला और उनके सामने अपनी बात रखी। लेकिन एजेंट ने बात को टालने के उद्देश्य से किसी भी तरह का निर्णय नहीं लिया।
आंदोलन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए ६ नवंबर को महंत दशरथिदास के मंदिर में दतिया पीपुल्स पार्टी का गठन हुआ। शाम को महाराजा ने पीपुल्स पार्टी के प्रतिनिधियों को बुलाया और अपनी परिस्थिति से अवगत करते हुए सहायता करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। बाद में चिकटे साहब ने क़िले के सामने एक आमसभा की और उसमें अपने त्यागपत्र की घोषणा कर दी। चिकटे साहब के त्यागपत्र देते ही उनके समर्थकों ने रियासत की नौकरियों से स्तीफा देना शुरू कर दिया। त्यागपत्र देने का यह क्रम तीन दिनों तक लगातार चलता रहा। कर्मचारियों के त्यागपत्र देने के कारण प्रशासन बिलकुल ठप्प हो गया। इस घटना से पोलिटिकल एजेंट क्रोधित हो गया और उसने क्राउन पुलिस बुलबा ली। लेकिन स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ तो निराश होकर वह ७ नवंबर को छुट्टी पर चला गया। पोलिटिकल एजेंट की अनुपस्थिती में महाराजा ने क्राउन पुलिस को नगर के बाहर भेज दिया और आंदोलनकारियों को समस्या के शीघ्र समाधान का आश्वासन देकर, हड़ताल समाप्त करवा दी।
महाराजा द्वारा ऐनुद्दीन को निकाल देने का आश्वासन तथा क्राउन पुलिस को नगर के बहार भेज देने के आदेश को ऐनुद्दीन ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और इसी बात पर उसने अपना त्याग पत्र कैम्पबेल को भेजकर, उनसे शीघ्र दतिया आने का अनुरोध किया।
११ नवंबर को कैम्पबेल दतिया आया और उसने महाराजा को अपना व्यान देने को कहा। गोबिंद सिंह ने हर आरोप को नकारते हुए कहा कि दीवान के प्रशासन में उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं किया है, जो विरोध हुआ वह "बदमाशों" का काम है। कैम्पबेल ने गोबिंद सिंह के कथन को नकारते हुए पूर्व की तरह उनके अधिकार प्रतिबंधित करने की अनुशंसा कर दी। रेजिडेंट ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए ८ नवंबर के महाराजा के आदेश को निरस्त करते हुए पीपुल्स पार्टी के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर नगर में १४४ धारा लगा दी। क्राउन पुलिस के दो और दस्ता भेजने का अनुरोध किया तथा ऐनुद्दीन का त्याग पत्र स्वीकार करते हुए अग्रिम व्यवस्था होने तक के लिए उसे दो महीने और रुकने के लिए राजी किया।
१२ नवंबर को नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में गंज के प्रांगण में एक विशाल आमसभा का आयोजन हुआ। महंत दशरथिदास, किशोरीशरण चौदा आदि नेताओं के जोशीले भाषण हो रहे थे कि अचानक क्राउन पुलिस ने बिना चेतावनी के लाठीचार्ज कर दिया। गंज की स्थिति लगभग जलियाँ वाले बाग़ की तरह थी। जमकर लाठियां बरसाई गई जो लोग भागे उन्हें दरवाजे के बाहर खड़ी बसों में भरकर १५ मील दूर जंगल में छुड़वा दिया, इसमें ८-१० साल के बच्चे भी शमिल थे। इस घटना का असर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं पर अधिक हुआ। १३ नवंबर को नगर की महिलाओं का एक विशाल जलूस १४४ धरा तोड़कर दीवान विरोधी नारे लगते हुए निकला। लेकिन किसी में हिम्मत नहीं हुई कि कोई उन्हें रोक सके। महिलाओं के जलूस का प्रशासन पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। १४ नवंबर को बीकानेर के एक वरिष्ठ अधिकारी विश्वनदास और ओरछा के महाराजा वीरसिंह देव (द्वतीय) जो दतिया आये थे को समझौता कराने तथा हड़ताल समाप्त कराने के लिए भेजा। ओरछा नरेश को यह मालूम था कि कैम्पबेल ने ऐनुद्दीन को दो महीने के लिए ही रोका था, इसीलिए उन्होंने आमसभा में जनता को यह विश्वास दिलाया कि २ माह के अंदर ऐनुद्दीन चला जाएगा। लेकिन चिकटे साहब ने शांतिपूर्वक आंदोलन चलाने का विश्वास दिलाते हुए उसे समाप्त करने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी।
अब आंदोलन का विस्तार तहसील और गाँवों में हो गया था। सरकारी कर्मचारियों के अलावा तहसीलदारों के त्यागपत्र भी आने लगे थे। आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा था। कैम्पबेल जान गया था कि आंदोलन के सूत्रधार चिकटे साहब हैं, इसीलिए उन्हें गिरफ्तार कर इंदौर जेल में भेज दिया। चिकटे साहब के गिरफ्तार होने के बाद १५ नवम्बर को पीताम्बरा पीठ के स्वामी जी महाराज ने पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष का पदभार ग्रहण किया। स्वामी जी के अध्यक्ष बनते ही दतिया की राजनीति में गुणात्मक बदलाव आया। इसे हम स्वामी जी का प्रभाव अथवा परिस्थितियों की मजबूरी कह सकते हैं। अंग्रेज सरकार ने शीघ्रता से निम्न निर्णय लिए- (१). समस्त राजनीतिक कैदी बिना शर्त रिहा कर दिए गए। (२). प्रशासन के संचालन के लिए एक गवर्निंग कौंसिल का गठन और (३) दतिया के नए संविधान के निर्माण के लिए आलेख कमेटी के गठन के लिए महाराजा को मजबूर किया। महाराजा ने समितियों के गठन में आनाकानी की तो रेजिडेंट फिशर ने नए संविधान बनकर लागू होने तक के लिए महाराजा के राज्याधिकार समाप्त कर उनके खर्चों को प्रतिबंधित कर दिया। फिशर के आदेश को राजपरिवार ने अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल माना और प्रतिक्रिया स्वरुप दतिया की महारानी अनशन पर बैठ गईं । १८ नवंबर को महिलाओं की एक आमसभा हुई जिसमें ५००० महिलाओं ने भाग लिया।
आंदोलन ने विकराल रूप धारण कर लिया था। ऐसी स्थिति में वाइसराय को हस्तक्षेप करना पड़ा। उसने मामले को सुलझाने के लिए अपने राजनीतिक सलाहकार को परिस्थितियों का अध्ययन करने के लिए दतिया भेजा। वाइसराय के सलाहकार की अनुशंसा सकारात्मक थी। चिकटे साहब को गवर्निग कमेटी का अशासकीय सदस्य मनोनीत किया गया। पोलिटिकल एजेंट, रेजिडेंट तथा दीवान के स्थानांतरण के अलावा महाराजा पर लगे प्रतिबन्ध उठा लिए गए।
दतिया पीपुल्स पार्टी का उद्देश्य पूरा हो गया था। अब दतिया की जनता के सामने उत्तरदाई शासन प्राप्त करने का लक्ष्य था। प्रजा मंडल का आंदोलन राजनीतिक जागरण एवं देशी रियासतों में गांधी जी के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्र संघर्ष का परिणाम था। अत; २३ नवंबर १९४६ को दतिया पीपुल्स पार्टी का विलय प्रजा मंडल में हो गया और इस तरह दतिया के जन आंदोलन का प्रथम चरण समाप्त हुआ।
ऐनुद्दीन बगदादी का लघु संस्करण था, उसका उद्देश्य दतिया रियासत को इस्लामिक स्टेट बनाना था। दतिया का अभूतपूर्व आंदोलन ही था जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ने कंधे से कन्धा मिला कर भाग लिया जिसके कारण ऐनुद्दीन अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका।
१९४१ में दतिया के राजा गोबिन्द सिंह के करीबी रघुनाथ सिंह भ्रष्टाचार के आरोपी थे। उन्हें बचाने के लिए राजा ने पोलिटिकल एजेंट की सलाह के बिना रियासत के दीवान हशमत अली को हटा कर उसकी जगह काउन्सिल के एक स्थानीय सदस्य की नियुक्ति कर दी थी। इसकी जानकारी पोलिटिकल एजेंट मेजर हेनरी पौल्टोन को मिली तो वह दतिया आया और उसने राजा को समझाया कि उसकी पूर्व सहमति के बिना किसी भी तरह का बदलाव नहीं किया जा सकता। लेकिन महाराजा ने अली को बहाल करने से साफ़ मना कर दिया। इसके बाद रेजिडेंट फिशर ने गोबिन्द सिंह को मुलाकात करने को कहा, लेकिन गोबिंद सिंह ने अपने पुत्र की बीमारी का बहाना बनाकर मिलने से मना कर दिया। फलस्वरूप फिशर ने स्टेट के वित्तीय मामलों का ऑडिट एवं ब्रिटिश प्रतिनिधि की सलाह न मानने की सिफारिश कर दी। सितम्बर १९४१ के अंत में मजबूर होकर महाराजा को पौल्टोन से समझौता करना पड़ा। समझौते के अनुसार वह ४ अवांछनीयों को सेवा से हटा देंगे और अली की जगह जिसे पोलिटिकल अथॉरिटीज सुनिश्चित करेगी, अस्थाई रूप से नियुक्त कर देंगे । २९ सितम्बर को अली की जगह राव बहादुर लेले दीवान बनकर दतिया आये। एक सप्ताह के बाद पौल्टोन को मालूम हुआ कि ४ अवाँछनीयों को निकालने का आदेश तो पारित हो गया था, लेकिन उन्होंने न तो चार्ज दिया और न ही दतिया छोड़ी। इसके अलावा लेले को ३० सितम्बर से ४ अक्टूबर तक सेवा में ही नहीं लिया।
दुर्भाग्य से १ अक्टूबर १९४१ को दशहरे के अवसर पर आयोजित समारोह में महाराजा की अक्षमता का प्रकरण घटित हो गया। जब गोबिन्द सिंह और उनके मेहमानों ने अत्यधिक मदिरा पान कर सार्वजनिक रूप से ध्रांगधा एवं झालावाड़ के महाराजाओं को शर्मनाक तरीके से अपमानित किया और शाम को आयोजित दरबार में सुपरिंटेंडेंट आफ पुलिस को खुलकर गालियां दी। फलस्वरूप फिशर ने फिर से नई सिफारिशें की, जिसे ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार कर लिया। उसके अनुसार गोबिंद सिंह से लिखित में पूछा जाये कि - एक नए दीवान की नियुक्ति की जायेगी जो राज्य के प्रशासन का संचालन करेगा (यद्यपि महाराजा को महल और शिकार के प्रबंधन में कुछ अधिकार होंगे) महाराजा को अलग से बुराईयों की एक सूची को स्वीकारनी पडेगी। महाराजा दीवान को आदेश नहीं दे सकेंगे, लेकिन वे रेजिडेंट और पोलिटिकल एजेंट को राज्य के मामलों के बारे में सूचित और परामर्श कर सकेंगे। इन शर्तों को गुप्त रखा जायेगा ताकि जनता का कोई हस्तक्षेप न हो। यदि गोबिंद सिंह इसके लिए तैयार नहीं हुए तो उनकी राज्य करने की क्षमता का आंकलन करने के लिए एक आयोग का गठन किया जाएगा। इन संशोधित शर्तों को गोबिंद सिंह ने १५ नवंबर १९४१ को लिखित में स्वीकार कर लिया।
इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी दीवान और गोबिंद सिंह का टकराव ख़त्म नहीं हुआ। जनवरी १९४२ में लेले की जगह नए दीवान देवी सिंह आये। उनसे भी टकराव हुआ तो अंत में फिशर को प्रतिवेदन देना पड़ा कि - " the pulse of the Datia State is beating very feebly at present, and it is thought that His Excellency`s recent decision to take over control of this Administration has come at a most opportune time" तमाम विचार-विमर्श के बाद ब्रिटिश सरकार ने यह निर्णय लिया कि देवी सिंह की जगह एक शक्तिशाली दीवान की नियुक्ति की जाये जो महाराजा पर नियंत्रण रख सके। अंग्रेजों की दृष्टि में इस तरह का सबसे उपयुक्त दीवान ऐनुद्दीन था। ऐनुद्दीन जब कांकोरी-ट्रैन-डकैती केस का स्पेशल जज था, तब उसने सी.आई.डी. के डिप्टी एस.पी. खान बहादुर तसद्दुक हुसैन से मिलकर केस को इतना उभारा कि उसमें रामप्रसाद बिस्मिल, अश्फ़ाक़उल्ला खान सहित ४ को फांसी, २ को कालापानी, शेष १६ व्यक्तियों को ३ साल से लेकर १४ वर्ष की सजाएँ हुईं थीं। और जब वह चरखारी का दीवान बना तब उसने वहां के राजा को पद्च्युक्त करा दिया था। इसके आलावा उसने कांकोरी प्रकरण में मुसलमान होने के नाते अश्फ़ाक़उल्ला को फांसी से बचाने के लिए अपना एक आदमी उसे सरकारी गवाह बनाने के लिए भेजा। लेकिन अश्फ़ाक़उल्लाह ने सरकारी गवाह बनने से इंकार कर दिया और कहा कि "कम से कम एक मुसलमान को तो अपनी मातृभूमि पर शहीद हो जाने दो।"
इसका कारण कुछ भी हो लेकिन ऐनुद्दीन के दतिया आने पर गोबिन्द सिंह अपना अधिकांश समय सेंवड़ा में व्यतीत करने लगे थे। इस स्थिति का लाभ उठाकर ऐनुद्दीन ढाई साल तक अपनी मनमानी करता रहा। उसने अपने बरिष्ठ अंग्रेज अधिकारी रेजिडेंट, पोलिटिकल एजेंट आदि को अपनी वाकपटुता से प्रभावित कर लिया और प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए रियासत के डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट, सिटी मजिस्ट्रेट, चीफ रेवेन्यू ऑफीसर, कस्टम सुपरिंडेंट, आदि प्रमुख पदों पर अपने सजातीयों को बाहर से बुलाकर नियुक्त कर दिया।
ऐनुद्दीन ने नगर के कुछ कट्टरपंधी मुसलमानों का एक गुट बनाकर अंजुमने-इस्लामियां नाम का एक सांप्रदायिक संगठन खड़ा किया । इस संगठन के माध्यम से मुसलमानों में कट्टरता का प्रसार और दलित हिन्दुओं, का धर्म परिवर्तन कराने की योजना बनाई। किन्तु अम्बेडकर की विचारधारा को मानने वाले दलित हिन्दू धर्म परिवर्तन के खिलाफ थे, इसीलिए उसकी यह योजना सफल नहीं हो पाई। फिर भी वह भटियारा मोहल्ला दतिया के खटीकों का धर्मांतरण करने में सफल हो गया । (इसकी सूची १९५१ की दतिया नगर की वोटर लिस्ट में देखी जा सकती हैं, जिसमें मतदाता के नाम तो मुसलमानी हैं किन्तु उनके पिता के नाम हिन्दू अंकित हैं।)
आतंक स्थापित करने के लिए ऐनुद्दीन ने विकास के नाम पर दतिया नगर का एक ऐसा मास्टर प्लान तैयार कराया जिसमें उसने एक ओर तो मस्जिदों और मजारों का निर्माण तो दूसरी ओर हिन्दुओं के मकानों, दुकानों के आलावा बड़ी संख्या में मंदिरों को तुड़वा दिया। यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि पीढ़ियों से रियासत में हिन्दू और मुसलमान इस तरह मिल-जुल कर रह रहे थे कि मानो रियासत में चार वर्ण न होकर पांच वर्ण हों। सब एक दूसरे के तीज-त्योहारों को बड़े उत्साह के साथ मनाते थे, उनमें भेदभाव का कोई भाव नहीं था। लेकिन जब ऐनुद्दीन ने मंदिरों को तुड़वाया तब हिन्दू और मुसलमान दोनों को बुरा लगा, क्योकि यह उनकी परम्परा के खिलाफ था, लेकिन वे वेवस थे।
विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद १९४५ में ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी। यह सरकार भारतीय स्वतंत्रता की पक्ष में थी। उसने १९४६ में प्रांतीय विधान मंडलों के चुनाव कराये। इसी क्रम में देशी राजाओ पर लगे प्रतिबन्ध भी हटा लिये। फलस्वरूप मार्च १९४६ में अंग्रेजों ने महाराजा गोबिन्द सिंह की शक्तियों पर लगे प्रतिबंधों को उठा लिया था।
१६ अगस्त १९४६ को मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस का आह्वान किया। दतिया में इसका प्रभाव पड़ा और अंजुमने-इस्लामियां ने एक आमसभा का आयोजन किया और उसमें हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करते हुए खुलकर गालियां दी।
दतिया की जनता ने सत्ताधारियों के अत्याचारों को हमेशा सहा है, कभी विरोध नहीं किया, लेकिन लार्ड रीडिंग हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक केसवराव रामचन्द्र चिकटे यह सहन नहीं सके। और उन्होंने दतिया के इतिहास में पहली बार ऐनुद्दीन की मनमानी का सार्वजनिक रूप से विरोध करने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने शिष्य रामरतन तिवारी, भैयालाल व्यास आदि को आंदोलनं करने का निर्देश दिया। नगर में एक विशाल आमसभा हुई जिसमें ऐनुद्दीन के कारनामों का विरोध करते हुए हिन्दू-मुसलमान, दलित- सामान्य सभी की एकता पर बल देते हुए शांति और अहिंसा के साथ आंदोलन करने का आह्वान किया।
इसी बीच ६ से ८ अक्टूबर १९४६ को प्रजा मण्डल की ओर से एक त्रिदिवसीय अधिवेशन हुआ, जिसमें बाहर से आये पंडित परमानंद, स्वामी स्वराज्यानन्द, भरतपुर के मौलवी अहमद, आगरा के गोपाल नारायण शिरोमणि, लालाराम बाजपेई आदि नेताओं ने उत्तरदायी शासन की मांग करते हुए ऐनुद्दीन के कारनामों की आलोचना की।
२४ अक्टूबर से २६ अक्टूबर १९४६ तक मड़िया के महादेव व नगर के कई मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ा तथा अपमानित किया गया। इन सारी घटाओं का सूत्रधार ऐनुद्दीन ही था। उसका उद्देश्य हिन्दू मुसलमानों के बीच दंगा कराना था, लेकिन वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाया। इसके विपरीत दतिया के हिन्दू और मुसलमान उसके विरोध में एक साथ खड़े हो गए। यह स्थिति ऐनुद्दीन के लिए अप्रत्याशित थी, वह स्वयं कटघरे में खड़ा हो गया था। इसीलिये उसने अपने वचाव के लिए सारा दोष हिन्दुओं पर मढ़ते हुए रेजिडेंट को अपना त्यागपत्र भेज दिया। साथ में रेजिडेंट और पोलिटिकल एजेंट को यह विश्वास दिलाने में भी सफल हो गया कि दतिया में मूर्तियों की तोड़फोड़ आदि घटनाएँ उसके खिलाफ हिन्दुओं के द्वारा रचा गया एक षड्यंत्र था। इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने उसका त्यागपत्र अस्वीकार करते हुए महाराजा गोबिंद सिंह को धमकी देकर आंदोलनकारियों पर सबसे कड़ी कार्यवाही करने तथा ऐनुद्दीन की रक्षा करने का भार सौंप दिया।
अभी तक चिकटे साहब परोक्ष रूप अपने शिष्यों को अहिंसक, और शांति पूर्वक आंदोलन चलाने के निर्देश देते रहते थे, किन्तु अब परिस्थितियां गंभीर हो गईं थीं। इसीलिए उन्होंने आंदोलन में सक्रिय भाग लेने का निर्णय लिया और मड़िया के महादेव पर अनशन पर बैठ गए। चिकटे साहब के अनशन पर बैठते ही नगर में बाजार बंद हो गया और नगर के सारे मजदूरों ने आंदोलन के समर्थन में अपना काम बंद कर हड़ताल कर दी। हड़ताल की सूचना पाकर नौगांव से पोलिटिकल एजेंट विलियम एगर्टों दतिया आया। ५ नवंबर को महंत दशरथिदास के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल पोलिटिकल एजेंट से मिला और उनके सामने अपनी बात रखी। लेकिन एजेंट ने बात को टालने के उद्देश्य से किसी भी तरह का निर्णय नहीं लिया।
आंदोलन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए ६ नवंबर को महंत दशरथिदास के मंदिर में दतिया पीपुल्स पार्टी का गठन हुआ। शाम को महाराजा ने पीपुल्स पार्टी के प्रतिनिधियों को बुलाया और अपनी परिस्थिति से अवगत करते हुए सहायता करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। बाद में चिकटे साहब ने क़िले के सामने एक आमसभा की और उसमें अपने त्यागपत्र की घोषणा कर दी। चिकटे साहब के त्यागपत्र देते ही उनके समर्थकों ने रियासत की नौकरियों से स्तीफा देना शुरू कर दिया। त्यागपत्र देने का यह क्रम तीन दिनों तक लगातार चलता रहा। कर्मचारियों के त्यागपत्र देने के कारण प्रशासन बिलकुल ठप्प हो गया। इस घटना से पोलिटिकल एजेंट क्रोधित हो गया और उसने क्राउन पुलिस बुलबा ली। लेकिन स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ तो निराश होकर वह ७ नवंबर को छुट्टी पर चला गया। पोलिटिकल एजेंट की अनुपस्थिती में महाराजा ने क्राउन पुलिस को नगर के बाहर भेज दिया और आंदोलनकारियों को समस्या के शीघ्र समाधान का आश्वासन देकर, हड़ताल समाप्त करवा दी।
महाराजा द्वारा ऐनुद्दीन को निकाल देने का आश्वासन तथा क्राउन पुलिस को नगर के बहार भेज देने के आदेश को ऐनुद्दीन ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और इसी बात पर उसने अपना त्याग पत्र कैम्पबेल को भेजकर, उनसे शीघ्र दतिया आने का अनुरोध किया।
११ नवंबर को कैम्पबेल दतिया आया और उसने महाराजा को अपना व्यान देने को कहा। गोबिंद सिंह ने हर आरोप को नकारते हुए कहा कि दीवान के प्रशासन में उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं किया है, जो विरोध हुआ वह "बदमाशों" का काम है। कैम्पबेल ने गोबिंद सिंह के कथन को नकारते हुए पूर्व की तरह उनके अधिकार प्रतिबंधित करने की अनुशंसा कर दी। रेजिडेंट ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए ८ नवंबर के महाराजा के आदेश को निरस्त करते हुए पीपुल्स पार्टी के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर नगर में १४४ धारा लगा दी। क्राउन पुलिस के दो और दस्ता भेजने का अनुरोध किया तथा ऐनुद्दीन का त्याग पत्र स्वीकार करते हुए अग्रिम व्यवस्था होने तक के लिए उसे दो महीने और रुकने के लिए राजी किया।
१२ नवंबर को नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में गंज के प्रांगण में एक विशाल आमसभा का आयोजन हुआ। महंत दशरथिदास, किशोरीशरण चौदा आदि नेताओं के जोशीले भाषण हो रहे थे कि अचानक क्राउन पुलिस ने बिना चेतावनी के लाठीचार्ज कर दिया। गंज की स्थिति लगभग जलियाँ वाले बाग़ की तरह थी। जमकर लाठियां बरसाई गई जो लोग भागे उन्हें दरवाजे के बाहर खड़ी बसों में भरकर १५ मील दूर जंगल में छुड़वा दिया, इसमें ८-१० साल के बच्चे भी शमिल थे। इस घटना का असर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं पर अधिक हुआ। १३ नवंबर को नगर की महिलाओं का एक विशाल जलूस १४४ धरा तोड़कर दीवान विरोधी नारे लगते हुए निकला। लेकिन किसी में हिम्मत नहीं हुई कि कोई उन्हें रोक सके। महिलाओं के जलूस का प्रशासन पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा। १४ नवंबर को बीकानेर के एक वरिष्ठ अधिकारी विश्वनदास और ओरछा के महाराजा वीरसिंह देव (द्वतीय) जो दतिया आये थे को समझौता कराने तथा हड़ताल समाप्त कराने के लिए भेजा। ओरछा नरेश को यह मालूम था कि कैम्पबेल ने ऐनुद्दीन को दो महीने के लिए ही रोका था, इसीलिए उन्होंने आमसभा में जनता को यह विश्वास दिलाया कि २ माह के अंदर ऐनुद्दीन चला जाएगा। लेकिन चिकटे साहब ने शांतिपूर्वक आंदोलन चलाने का विश्वास दिलाते हुए उसे समाप्त करने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी।
अब आंदोलन का विस्तार तहसील और गाँवों में हो गया था। सरकारी कर्मचारियों के अलावा तहसीलदारों के त्यागपत्र भी आने लगे थे। आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा था। कैम्पबेल जान गया था कि आंदोलन के सूत्रधार चिकटे साहब हैं, इसीलिए उन्हें गिरफ्तार कर इंदौर जेल में भेज दिया। चिकटे साहब के गिरफ्तार होने के बाद १५ नवम्बर को पीताम्बरा पीठ के स्वामी जी महाराज ने पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष का पदभार ग्रहण किया। स्वामी जी के अध्यक्ष बनते ही दतिया की राजनीति में गुणात्मक बदलाव आया। इसे हम स्वामी जी का प्रभाव अथवा परिस्थितियों की मजबूरी कह सकते हैं। अंग्रेज सरकार ने शीघ्रता से निम्न निर्णय लिए- (१). समस्त राजनीतिक कैदी बिना शर्त रिहा कर दिए गए। (२). प्रशासन के संचालन के लिए एक गवर्निंग कौंसिल का गठन और (३) दतिया के नए संविधान के निर्माण के लिए आलेख कमेटी के गठन के लिए महाराजा को मजबूर किया। महाराजा ने समितियों के गठन में आनाकानी की तो रेजिडेंट फिशर ने नए संविधान बनकर लागू होने तक के लिए महाराजा के राज्याधिकार समाप्त कर उनके खर्चों को प्रतिबंधित कर दिया। फिशर के आदेश को राजपरिवार ने अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल माना और प्रतिक्रिया स्वरुप दतिया की महारानी अनशन पर बैठ गईं । १८ नवंबर को महिलाओं की एक आमसभा हुई जिसमें ५००० महिलाओं ने भाग लिया।
आंदोलन ने विकराल रूप धारण कर लिया था। ऐसी स्थिति में वाइसराय को हस्तक्षेप करना पड़ा। उसने मामले को सुलझाने के लिए अपने राजनीतिक सलाहकार को परिस्थितियों का अध्ययन करने के लिए दतिया भेजा। वाइसराय के सलाहकार की अनुशंसा सकारात्मक थी। चिकटे साहब को गवर्निग कमेटी का अशासकीय सदस्य मनोनीत किया गया। पोलिटिकल एजेंट, रेजिडेंट तथा दीवान के स्थानांतरण के अलावा महाराजा पर लगे प्रतिबन्ध उठा लिए गए।
दतिया पीपुल्स पार्टी का उद्देश्य पूरा हो गया था। अब दतिया की जनता के सामने उत्तरदाई शासन प्राप्त करने का लक्ष्य था। प्रजा मंडल का आंदोलन राजनीतिक जागरण एवं देशी रियासतों में गांधी जी के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्र संघर्ष का परिणाम था। अत; २३ नवंबर १९४६ को दतिया पीपुल्स पार्टी का विलय प्रजा मंडल में हो गया और इस तरह दतिया के जन आंदोलन का प्रथम चरण समाप्त हुआ।