दतिया के राजा गोविन्द सिंह का निष्कासन
-सोम त्रिपाठी
एजेंट टू दी गवर्नर-जनरल फॉर सेंट्रल इंडिया माइकल ओ`द्व्येर ने विदेश सचिव सर हेनरी मैक महोन को नवंबर १९१० में सूचित किया कि उनके पर्यवेक्षण के अधीन देशी रियासत दतिया के २४ वर्षीय महाराजा गोविन्द सिंह के द्वारा अभिप्रेरित दिल को दहलाने वाली १० वीभत्स हत्या-आत्महत्या की घटनाओं का खुलासा हुआ है। (1) आगे यह भी खुलासा हुआ है कि ये निर्मम घटनाएँ न्याय के मौलिक सिद्धांतों के विपरीत हैं। (2) तदनुसार मार्च १९११ में ब्रिटिश सरकार ने ओ`द्वेर की अनुशंसा को स्वीकारते हुए यह आदेश दिया कि दतिया के अप्रभावी दीवान को बदलकर उसके स्थान पर अधिक प्रशासनिक अधिकार देकर नए दीवान की नियुक्ति की जाये और महाराजा गोबिंद सिंह को यह चेतावनी देकर सूचित किया जाये कि भविष्य में यदि इस तरह की घटनाएँ घटी तो उनके राज्याधिकार छीन लिए जायेंगे।(3)
उपरोक्त घटनाएं गोबिंद सिंह का शासन समाप्त करने का पर्याप्त आधार थीं. परन्तु न्याय के मौलिक सिद्धांतों की बात करने वाली ब्रिटिश सरकार ने मात्र चेतावनी देकर प्रकरण को बंद कर दिया। यह रियासत की जनता के साथ अन्याय था। इससे एक बात स्पष्ट हो गई कि ब्रिटिश सरकार अपने लाभ के लिए देशी रियासतों का उपयोग अपना परोक्ष शासन चलाने के लिए एक औजार के रूप में करती थी। उन्हें जनता के हितों से कोई लेना देना नहीं था। देशी रियासतें के ब्रिटिश सरकार से सम्बन्ध उनके द्वारा की गई विभिन्न संधियों पर आधारित थे। इन संधियों में परोक्ष शासन का कोई प्रावधान नहीं था, लेकिन रियासतें शक्तिहीन होकर पूरी तरह ब्रिटिश सरकार की अनुकम्पा पर निर्भर थीं। उनमें प्रतिरोध करने की शक्ति न होने के कारण ऐसी संधियों का कोई महत्व नहीं था। ब्रिटिश सरकार ने इस कमजोरी का लाभ उठा कर रियासतों में अपने दीवान और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति कर दी थी।
कुछ महीने तो सब कुछ ठीक-ठाक चला, लेकिन धीरे-धीरे गोबिंद सिंह पर चेतावनी का असर कम होने लगा। उन्होंने अपना आचरण सुधारने का जो वचन दिया था, उससे मुकर गए और पूर्व की तरह आचरण करने लगे। सितम्बर १९११ में ओ`द्व्येर ने विदेश सचिव को सूचित किया कि गोविन्द सिंह दुष्ट सलाहकारों और नीच साथियों के सम्पर्क में शराबी और ऐयाश हो गए है। खुलेआम उन अधिकारियों का अपमान कर रहे हैं, जिन्हें अभी हाल में ब्रिटिश सरकार ने दीवान का सहयोग करने के लिए नियुक्त किया था। (4) नौगांव में स्थित पोलिटिकल एजेंट लेफ्टिनेंट कर्नल एल. एम्पेय ने अक्टूबर १९११ में दतिया का दौरा करने के बाद फर्स्ट असिस्टेंट एजीजी को सूचित किया कि दशहरा के अवसर पर आयोजित दरबार में महाराजा इतनी शराब पिए हुए थे कि वह बिना सहारे के उठ-बैठ नहीं पा रहे थे। वह और उनके सहयोगी लगातार प्रशासनिक कार्यों में बाधा डाल रहे थे। इस दौरन महाराजा स्वयं अपने साथियों को दीवान के हाथ-पैर तोड़ देने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। (5) गोविन्द सिंह के लिए यह सब आम-बात थी,लेकिन ब्रिटिश सरकार के द्वारा नियुक्त अधिकारियों और दीवान के साथ घटित हुई, इसीलिए खास हो गई। ब्रिटिश सरकार ने इसे अपनी प्रभुसत्ता पर अतिक्रमण माना। परिणाम स्वरुप ओ`द्व्येर ने दिनांक १७ नवंबर १९११ को आदेश दिया-
अध्याय का प्रारम्भ अक्टूबर १९१० के अंतिम सप्ताह में हुआ था, जब झाँसी के पॉलिटिकल एजेंट फ्रेडरिक मैकडोनाल्ड ने दतिया का दौरा करने के बाद एजीजी को उन तमाम वीभत्स घटनाओं की जानकारी दी जो गोविन्द सिंह के शासन काल के दौरान घटित हुईं थीं। एजीजी ने गोपनीय डीओ लेटर दिनांक २ नवंबर १९१० के द्वारा विदेश सचिव को सूचित किया, तब कहीं जाकर ब्रिटिश सरकार को इन घटनाओं की जानकारी हुई। गोविन्द सिंह का दतिया में इतना आतंक था कि कोई भी व्यक्ति उनके खिलाफ एक भी शब्द बोलने की हिम्मत नहीं जुटा सकता था। फ्रेडेरिक मैकडोनाल्ड को भी इसकी जानकारी उनके एक लिपिक ने दी थी। उसने बताया था कि दतिया में उसके ससुर गोबिंद दास मोदी के परिवार के सारे सदस्यों ने गोबिंद सिंह के अत्याचारों से प्रेरित होकर हत्या-आत्महत्या कर ली है। लोक में यह घटना "मोदियों का कटा" के नाम से प्रचिलित है।
गोबिंद सिंह के अत्याचारों से दतिया का राज्य और राजधानी भ्रष्टाचार के कारण घृणा का पात्र बन गई थी। परिणाम स्वरुप लोग यहाँ से पलायन कर पड़ोस के राज्यों में शरण लेने लगे थे। सड़कें सुनसान हो गई थीं और मकान खँडहर । १९०१ से ११ के बीच दतिया की जनसंख्या में भरी कमी आई, प्रत्येक सात में से एक आदमी पलायन कर गया था। (दतिया स्टेट गज़ेटियर -पेज ५०)(10)
इस प्रकरण में गोविन्द सिंह और उनके अधिकारियों ने जो प्रतिक्रियायें दी, वह अपर्याप्त और अनुपयुक्त सिद्ध हुईं और वे संदेह के घेरे में आ गए। गोबिंद सिंह जब मैकडोनाल्ड के सामने उपस्थित हुए तब उन्होंने घटना को बड़े हल्के में लेते हुए कहा था कि अपराधवोध के कारण ये आत्महत्याएं हुई थीं। (11) ब्रिटिश सरकार ने गोबिंद सिंह के तर्कों को अमान्य करते हुए उन्हें चेतावनी दी कि भविष्य में यदि इन घटनाओं की पुनरावृति हुई तो उनसे राज्याधिकार छीन लिए जायेंगे।
१९११ में दशहरा के अवसर पर आयोजित दरबार में गोबिंद सिंह ने ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारियों और दीवान के साथ जो अशिष्ट व्यवहार किया था उसके कारण उन्हें राज्याधिकार छीनकर राज्य से निष्कासित करने की सजा दी गई थी। गोविन्द सिंह को इसकी सूचना नवंबर १९११ के मध्य में दी गई। कोई अप्रिय घटना न घटित हो इसीलिए कैप्टेन टिंडल के नेतृत्व में सम्मन को तामील कराने के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेजी। तमाम प्रतिरोधों के बाद २२ दिसम्बर १९११ को कैप्टेन टिंडल दतिया से गोविन्द सिंह को लेकर रवाना हुआ। गोविन्द सिंह को कहां रखें, यह अभी निश्चित नहीं था, इसीलिए उन्हें सिविल लाइन, बरेली में एक किराये के मकान में रखा गया।(12)
गोविन्द सिंह भाग्यशाली थे कि उनके खिलाफ आरोपों का जो पैमाना निर्धारित किया गया, उसमें वहाली की संभावनाओं को बनाये रखा था। ब्रिटिश सरकार का यह मानना था कि उन्होंने जो कुछ भी किया वह राजनितिक कारणों से नहीं किया, बल्कि इसका कारण था कि उन्हें न तो राजकाज का प्रशिक्षण मिला और न पर्याप्त शिक्षा। अपवाद स्वरुप उन्होंने अल्प समय इम्पीरियल कैडेट कोर कॉलेज में जरूर व्यतीत किया था, परंतु महल के दूषित वातावरण के कारण उनमें जो गलत आदतें पड़ गई थीं, उनका चरित्र अत्याधिक उद्दण्ड था। इस सम्बन्ध में ब्रिटिश सरकार यह मत था कि उन्हें इलाज की जरुरत थी। विचारोपरान्त यह निश्चित हुआ कि चिकित्सा का यह प्रयोग गोविन्द सिंह की अतिउद्दण्डता के कारण असफल हो जायेगा इसीलिए उन्हें सेना के कैप्टेन टिंडल के संरक्षण में प्राच्य परंपरा और पश्चिमी आधुनिकता के सिर्फ सही मिश्रण को आत्मसात कराने की परिकल्पना के उद्देश्य से साउथ अफ्रीका भेजा गया । घोषित रूप में गोविन्द सिंह की गिरफ्तारी को प्रशिक्षण और उनकी अफ्रीका यात्रा को शिकार अभियान का नाम दिया गया। (13) इससे अलग दतिया गजेटियर में गोबिंद सिंह को महिमा मंडित करने के उद्देश्य से उंन्हें राजस्व प्रशिक्षण के लिए अजमेर भेजने की बात का उल्लेख किया है।
मई १९१४ में अफ्रीका से लौटने के बाद गोविंद सिंह को ब्रिटिश मापदंडों के अनुसार अपने उत्तरदायित्वों के प्रति गंभीर होने के लिए और उनके मानसिक विकास के लिए जो प्रयास किये गए उसके क्या परिणाम निकले ? इसका अध्ययन करने के बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने कई सुझाव दिए- पोलिटिकल एजेंट, बुन्देलखण्ड ने एजीजी सेंट्रल इंडिया को पत्र दिनांक १७ अप्रैल १९१४ के द्वारा सुझाव दिया कि गोबिंद सिंह ने प्राच्य आचरण सीखने में कितनी प्रगति की है, को निर्धारित करने के लिए यह आवश्यक है कि परिक्षण के तौर पर उन्हें ७ से १० तक दिन के लिए दतिया भेजा जाए जहां वह कैप्टेन टिंडल के साथ एक अल्प वयस्क महाराजा की तरह रेस्ट हाउस में रहें और बिना हस्तक्षेप के राज्य प्रशासन के क्रियाकलापों का अध्यन करें।(14) लेकिन बिदेश विभाग ने इस प्रस्ताव पर असहमति व्यक्त की कि उनका अपने ही मंत्रियों के अधीन प्रशिक्षण लेना उचित नहीं है।(15) एजीजी (अब ओस्वाल्ड बोसांक्वेट थे) ने डिप्टी फॉरेन सेक्रेटरी रोबर्ट हॉलैंड को सूचित किया कि यदि गोबिंद सिंह की नयी रिपोर्ट संतोषजनक आई तो उन्हें जल्दी ही पुन: बहाल कर दिया जाये।बोसांक्वेट अभी गोबिंद सिंह से मिले नहीं थे क्योंकि उस समय वे अजमेर में रह रहे थे फिर भी अजमेर के पोलिटिकल एजेंट लेफ्टिनेंट कर्नल चार्ल्स प्रिक्त्चार्ड और टिंडल की रिपोर्ट के आधार पर, जिसमें उन्होंने माना था कि यद्यपि गोविन्द सिंह का मानसिक विकास अभी धीमा और प्रशासकीय प्रशिक्षण अभी भी अधूरी था, फिर भी उनका विकास संतोषजनक था। इसपर भी का मानना था कि गोविन्द सिंह को अभी उपयुक्त प्रवीणता प्राप्त करने के लिए दो या तीन महिने इंदौर में रह कर रेजिडेंस कोर्ट्स की कार्यप्रणाली का अध्ध्यन कराना चाहिए। इसके बाद उन्हें दतिया भेजा जाये जहाँ वह दीवान के साथ प्रशासनिक कार्यों का प्रशक्षण लें।(16
प्रिटचार्ड ने गोबिंद सिंह की खेल-कूद में पर्याप्त रूचि लेने के आधार पर उन्हें दतिया भेजने की अनुशंसा की थी। ब्रिटिश शासन काल में खेल-कू द पदोन्नति का आधार होता था। यह ख़ुशी की खबर थी कि गोविन्द सिंह पोलो, टेनिस, बैडमिंटन और बिलियर्ड्स आदि खेलों में रूचि लेने लगे थे। उसी समय समाचार मिला कि गोबिंद सिंह ने एक व्यक्ति को १२,०००/- रुपये दिए और काम हो जाने पर और देने का वायदा किया। प्रिटचार्ड ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अजमेर में इस तरह का दान देना आम बात है। गरीब-नबाज की कब्र के चारों ओर चांदी की जो रैलिंग लगी है उस पर गोबिंद सिंह का नाम लिखा हुआ है, शायद गोबिंद सिंह ने यह रुपया यहाँ दान किया था।(17)
गोबिंद सिंह के दतिया लौटने की अंतिम तारीख १ अगस्त १९१४ निर्धारित की गई थी इसीलिए उन्हें अजमेर से इंदौर बुलाया गया। वह एक सप्ताह बोसंकेट के साथ इंदौर में रहे और इसके बाद उन्हें कैप्टेन टिंडल के साथ दतिया भेजा गया। गोबिंद सिंह को हर निर्णय में टिंडल की सलाह मानने के लिए प्रतिबंधित किया गया और कहा गया कि यदि उन्होंने टिंडल और पोलिटिकल एजेंट की सलाह नहीं मानी तो भविष्य में किसी पूर्वापेक्षा की आवश्यकता नहीं होगी। (18)
३१ जुलाई १९१४ को गोबिंद सिंह दतिया आ गए और १ अगस्त १९१४ को दतिया में एक दरबार आयोजित किया गया जिसमें पॉलिटिकल एजेंट ने घोषणा की-
It has therefore been decided that Your Highness should be immediately relieved from your power and reside outside your state.(6)ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त दीवान और अधिकारियों का अपमान कोई इतनी बड़ी घटना नहीं थी कि राज्याधिकार छीन कर गोबिंद सिंह को राज्य से निष्कासित कर दिया जाये। इसका अन्य रियासतों को गलत संदेश जाता। इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने एक ओर तो राज्य की जनता को संतुष्ट करने के लिए यह कहा कि गोबिंद सिंह को उनके अत्याचारों के कारण देश-निकाला देकर काले पानी की सजा दी गई है। वहीँ दूसरी ओर एजीजी ने १७ नवंबर १९११ को गोबिंद सिंह को सूचित किया कि स्थाई रूप से राज्याधिकार छीन कर उन्हें राज्य से निष्कासित करने का ब्रिटिश सरकार का कोई मंतव्य नहीं है। वह जिस दिन यह सिद्ध कर देंगे कि वह अपने उत्तरदायित्वों को निभाने में सक्षम हैं, उस दिन उन्हें दतिया की गद्दी लौटा दी जाएगी।(7) कुछ वर्षों बाद ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास हो गया की गोबिंद सिंह के चरित्र में परिवर्तन आ गया तब उन्होंने कुछ प्रतिबंधो के साथ गद्दी लौटा दी।
अध्याय का प्रारम्भ अक्टूबर १९१० के अंतिम सप्ताह में हुआ था, जब झाँसी के पॉलिटिकल एजेंट फ्रेडरिक मैकडोनाल्ड ने दतिया का दौरा करने के बाद एजीजी को उन तमाम वीभत्स घटनाओं की जानकारी दी जो गोविन्द सिंह के शासन काल के दौरान घटित हुईं थीं। एजीजी ने गोपनीय डीओ लेटर दिनांक २ नवंबर १९१० के द्वारा विदेश सचिव को सूचित किया, तब कहीं जाकर ब्रिटिश सरकार को इन घटनाओं की जानकारी हुई। गोविन्द सिंह का दतिया में इतना आतंक था कि कोई भी व्यक्ति उनके खिलाफ एक भी शब्द बोलने की हिम्मत नहीं जुटा सकता था। फ्रेडेरिक मैकडोनाल्ड को भी इसकी जानकारी उनके एक लिपिक ने दी थी। उसने बताया था कि दतिया में उसके ससुर गोबिंद दास मोदी के परिवार के सारे सदस्यों ने गोबिंद सिंह के अत्याचारों से प्रेरित होकर हत्या-आत्महत्या कर ली है। लोक में यह घटना "मोदियों का कटा" के नाम से प्रचिलित है।
फ्रेडेरिक मैकडोनाल्ड ने घटना का विवरण देते हुए लिखा था कि कुछ दिन पूर्व दतिया के एक संभ्रांत परिवार को हत्या-आत्महत्या के लिये अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित किया गया था, जिसके सूत्र महाराजा से जुड़े हुए हैं। गोविन्द सिंह ने दरबार के सामानांतर एक अलग से न्यायिक प्राधिकरण बना रखा था जो उनकी मर्जी के अनुसार संचालित होता था, उसे "इजलास-ए-खास" कहते थे। इसमें उन लोगों को अमानुषिक रूप से प्रताड़ित किया जाता था जो महाराज की मर्जी के विरुद्ध काम करते थे या जिन्हें महाराज पसंद नहीं करते थे। मोदी परिवार के मुखिया गोविन्द दास जो रियासत में महल खर्च के व्यवस्थापक (कामदार) थे, को प्रताड़ित करने के लिए इसी इजिलास-ये-खास में गबन का आरोप लगा कर बंद कर रखा था। दो दिन कैद में रखने के बाद उन्हें सार्वजानिक रूपसे अपमानित करने के उद्देश्य से हाथ बांध कर क़िले से उनके घर तक प्रदर्शन करते हुए पैदल लाया गया और धमकी दी गई कि अगर उन्होंने धन नहीं दिया तो उनकी चमड़ी खीच कर भूसा भर देंगे। उस समय घर पर उनके दो भाई मौजूद थे। जब उन्हें अपने भाई गोबिंद दास मोदी को बाजार में अपमानित करते हुए बांध कर घर लाने की खबर मिली तो उन्होंने एक अप्रत्याशित निर्णय ले लिया। उन्होंने अपने परिवार के सारे सदस्यों को आँगन में एकत्र कर पहले उन्हें मारा और बाद में स्वयं आत्महत्या कर ली। इस कटा में ११ लोग मरे गए थे, जिनमें २ गर्भवती महिलाएं शामिल थी। मात्र एक १३ वर्षीय लड़का राम चरण जिन्दा बचा था। परीक्षण के दौरान राम चरण ने अपने बयान में कहा था कि उसके एक चाचा कह रहे थे कि पिछले साल इसी तरह की घटना लिटौरिया परिवार की साथ घटित हुई थी, वैसी हमारे परिवार के साथ घटित न हो। ऐसी स्थिति में हम सब को जिन्दा रहने की अपेक्षा मर जाना अच्छा है।(8 गबन के आरोप के संबंध में मोदी परिवार के वंशज स्व. मन्नू लाल मोदी ने एक साक्षात्कार में बताया था कि महाराजा गोबिंद सिंह का इतना आतंक था की कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह के गबन करने की सोच भी नहीं सकता था। गोबिंद दास मोदी पर लगाया गया आरोप पूरी तरह झूठा था। वास्तिविकता यह थी कि १८५८ में झाँसी की रानी के पिता मोरोपंत घायल अवस्था में झाँसी का खजाना लेकर दतिया आये थे जिन्हें हमारे पूर्वज बलदेव मोदी ने अपने बाग़ में शरण दी थी। झाँसी की रानी के मरने के बाद अंग्रेज मोरोपंत को खजाने सहित पकड़ कर झाँसी ले गए थे। महाराजा गोविन्द सिंह को यह शक था कि झाँसी के खजाने का कुछ भाग हमारे परिवार के पास है, जिसे प्राप्त करने के लिए ही गोबिंद दास मोदी को इजलास-ए-खास में प्रताड़ित और अपमानित किया था।अंतत: हमारे परिवार को कटा करना पड़ा ।
मोदी परिवार का यह कटा हर तरह से मानवीय मूल्यों के परे अत्यंत वीभत्स था,फिर भी इसे राजनीति से प्रेरित बताया गया। इस प्रकरण में आधिकारिक परिकल्पना यह थी कि (अ) महाराजा का इतना आतंक था कि लोग बुलावा आने पर उपस्थित होने की अपेक्षा मर जाना पसंद करते थे। (ब ) कि ये दुर्भाग्यशाली लोग इजलास-ए-खास की प्रताड़ना से इतने डरे हुए थे कि वहां जाने से पहले आत्म-हत्या कर लेते थे। (9)गहन छानबीन में १९०७ में गद्दी पर बैठने से लेकर १९११ तक के कार्यकाल में हुईं संदेहात्मक मौतों की एक लम्बी श्रृंखला का पता चला। कुछ समय पहले अनंत सिंह की गोविन्द सिंह के शिकार अभियान में निर्ममता से गोली मार कर हत्या करदी गई थी। इस हत्या की कभी पूरी जाँच नहीं हुई। १९०९ में लिटोरिया परिवार जिसका जिक्र मोदी के कटा में आया था, के दो भाइयों को इजलास-ए -खास में इतना प्रताड़ित किया कि उनमें से एक भाई की मौत क़िले में ही हो गई थी। इनको भी गबन का आरोपी बनाया गया था। इसके बाद लिटोरिया परिवार के साथ जो घटित हुआ उसका विवरण अत्यंत वीभत्स है। अगस्त १९०८ में इजलास-ए -खास में बुलाये जाने पर खजांची ने कुएं में गिर कर आत्महत्या कर ली थी। परिस्थिति संदेहास्पद थी परन्तु इसकी भी कोई जाँच नहीं की गई और उसके कुटुम्बियों ने प्रकट रूप से कहा कि ऐसा लगता है यह एक दुर्घटना थी । राजमाता के वरिष्ठ सलाहकार दीवान कामता प्रसाद ने भी नौकरी से निकाले जाने के बाद घर आकर पहले अपनी पत्नी को मारा और बाद में स्वयं आत्महत्या कर ली। आत्महत्या करने के पूर्व वह एक लिखित कथन छोड़ गया था, जिसमें उसने दीवान पर अभद्र व्यवहार करने का आरोप लगाया था। दरबार ने यह निष्कर्ष निकला की यह पारिवारिक झगड़ा था। (10)
गोबिंद सिंह के अत्याचारों से दतिया का राज्य और राजधानी भ्रष्टाचार के कारण घृणा का पात्र बन गई थी। परिणाम स्वरुप लोग यहाँ से पलायन कर पड़ोस के राज्यों में शरण लेने लगे थे। सड़कें सुनसान हो गई थीं और मकान खँडहर । १९०१ से ११ के बीच दतिया की जनसंख्या में भरी कमी आई, प्रत्येक सात में से एक आदमी पलायन कर गया था। (दतिया स्टेट गज़ेटियर -पेज ५०)(10)
इस प्रकरण में गोविन्द सिंह और उनके अधिकारियों ने जो प्रतिक्रियायें दी, वह अपर्याप्त और अनुपयुक्त सिद्ध हुईं और वे संदेह के घेरे में आ गए। गोबिंद सिंह जब मैकडोनाल्ड के सामने उपस्थित हुए तब उन्होंने घटना को बड़े हल्के में लेते हुए कहा था कि अपराधवोध के कारण ये आत्महत्याएं हुई थीं। (11) ब्रिटिश सरकार ने गोबिंद सिंह के तर्कों को अमान्य करते हुए उन्हें चेतावनी दी कि भविष्य में यदि इन घटनाओं की पुनरावृति हुई तो उनसे राज्याधिकार छीन लिए जायेंगे।
१९११ में दशहरा के अवसर पर आयोजित दरबार में गोबिंद सिंह ने ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारियों और दीवान के साथ जो अशिष्ट व्यवहार किया था उसके कारण उन्हें राज्याधिकार छीनकर राज्य से निष्कासित करने की सजा दी गई थी। गोविन्द सिंह को इसकी सूचना नवंबर १९११ के मध्य में दी गई। कोई अप्रिय घटना न घटित हो इसीलिए कैप्टेन टिंडल के नेतृत्व में सम्मन को तामील कराने के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेजी। तमाम प्रतिरोधों के बाद २२ दिसम्बर १९११ को कैप्टेन टिंडल दतिया से गोविन्द सिंह को लेकर रवाना हुआ। गोविन्द सिंह को कहां रखें, यह अभी निश्चित नहीं था, इसीलिए उन्हें सिविल लाइन, बरेली में एक किराये के मकान में रखा गया।(12)
गोविन्द सिंह भाग्यशाली थे कि उनके खिलाफ आरोपों का जो पैमाना निर्धारित किया गया, उसमें वहाली की संभावनाओं को बनाये रखा था। ब्रिटिश सरकार का यह मानना था कि उन्होंने जो कुछ भी किया वह राजनितिक कारणों से नहीं किया, बल्कि इसका कारण था कि उन्हें न तो राजकाज का प्रशिक्षण मिला और न पर्याप्त शिक्षा। अपवाद स्वरुप उन्होंने अल्प समय इम्पीरियल कैडेट कोर कॉलेज में जरूर व्यतीत किया था, परंतु महल के दूषित वातावरण के कारण उनमें जो गलत आदतें पड़ गई थीं, उनका चरित्र अत्याधिक उद्दण्ड था। इस सम्बन्ध में ब्रिटिश सरकार यह मत था कि उन्हें इलाज की जरुरत थी। विचारोपरान्त यह निश्चित हुआ कि चिकित्सा का यह प्रयोग गोविन्द सिंह की अतिउद्दण्डता के कारण असफल हो जायेगा इसीलिए उन्हें सेना के कैप्टेन टिंडल के संरक्षण में प्राच्य परंपरा और पश्चिमी आधुनिकता के सिर्फ सही मिश्रण को आत्मसात कराने की परिकल्पना के उद्देश्य से साउथ अफ्रीका भेजा गया । घोषित रूप में गोविन्द सिंह की गिरफ्तारी को प्रशिक्षण और उनकी अफ्रीका यात्रा को शिकार अभियान का नाम दिया गया। (13) इससे अलग दतिया गजेटियर में गोबिंद सिंह को महिमा मंडित करने के उद्देश्य से उंन्हें राजस्व प्रशिक्षण के लिए अजमेर भेजने की बात का उल्लेख किया है।
मई १९१४ में अफ्रीका से लौटने के बाद गोविंद सिंह को ब्रिटिश मापदंडों के अनुसार अपने उत्तरदायित्वों के प्रति गंभीर होने के लिए और उनके मानसिक विकास के लिए जो प्रयास किये गए उसके क्या परिणाम निकले ? इसका अध्ययन करने के बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने कई सुझाव दिए- पोलिटिकल एजेंट, बुन्देलखण्ड ने एजीजी सेंट्रल इंडिया को पत्र दिनांक १७ अप्रैल १९१४ के द्वारा सुझाव दिया कि गोबिंद सिंह ने प्राच्य आचरण सीखने में कितनी प्रगति की है, को निर्धारित करने के लिए यह आवश्यक है कि परिक्षण के तौर पर उन्हें ७ से १० तक दिन के लिए दतिया भेजा जाए जहां वह कैप्टेन टिंडल के साथ एक अल्प वयस्क महाराजा की तरह रेस्ट हाउस में रहें और बिना हस्तक्षेप के राज्य प्रशासन के क्रियाकलापों का अध्यन करें।(14) लेकिन बिदेश विभाग ने इस प्रस्ताव पर असहमति व्यक्त की कि उनका अपने ही मंत्रियों के अधीन प्रशिक्षण लेना उचित नहीं है।(15) एजीजी (अब ओस्वाल्ड बोसांक्वेट थे) ने डिप्टी फॉरेन सेक्रेटरी रोबर्ट हॉलैंड को सूचित किया कि यदि गोबिंद सिंह की नयी रिपोर्ट संतोषजनक आई तो उन्हें जल्दी ही पुन: बहाल कर दिया जाये।बोसांक्वेट अभी गोबिंद सिंह से मिले नहीं थे क्योंकि उस समय वे अजमेर में रह रहे थे फिर भी अजमेर के पोलिटिकल एजेंट लेफ्टिनेंट कर्नल चार्ल्स प्रिक्त्चार्ड और टिंडल की रिपोर्ट के आधार पर, जिसमें उन्होंने माना था कि यद्यपि गोविन्द सिंह का मानसिक विकास अभी धीमा और प्रशासकीय प्रशिक्षण अभी भी अधूरी था, फिर भी उनका विकास संतोषजनक था। इसपर भी का मानना था कि गोविन्द सिंह को अभी उपयुक्त प्रवीणता प्राप्त करने के लिए दो या तीन महिने इंदौर में रह कर रेजिडेंस कोर्ट्स की कार्यप्रणाली का अध्ध्यन कराना चाहिए। इसके बाद उन्हें दतिया भेजा जाये जहाँ वह दीवान के साथ प्रशासनिक कार्यों का प्रशक्षण लें।(16
प्रिटचार्ड ने गोबिंद सिंह की खेल-कूद में पर्याप्त रूचि लेने के आधार पर उन्हें दतिया भेजने की अनुशंसा की थी। ब्रिटिश शासन काल में खेल-कू द पदोन्नति का आधार होता था। यह ख़ुशी की खबर थी कि गोविन्द सिंह पोलो, टेनिस, बैडमिंटन और बिलियर्ड्स आदि खेलों में रूचि लेने लगे थे। उसी समय समाचार मिला कि गोबिंद सिंह ने एक व्यक्ति को १२,०००/- रुपये दिए और काम हो जाने पर और देने का वायदा किया। प्रिटचार्ड ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अजमेर में इस तरह का दान देना आम बात है। गरीब-नबाज की कब्र के चारों ओर चांदी की जो रैलिंग लगी है उस पर गोबिंद सिंह का नाम लिखा हुआ है, शायद गोबिंद सिंह ने यह रुपया यहाँ दान किया था।(17)
गोबिंद सिंह के दतिया लौटने की अंतिम तारीख १ अगस्त १९१४ निर्धारित की गई थी इसीलिए उन्हें अजमेर से इंदौर बुलाया गया। वह एक सप्ताह बोसंकेट के साथ इंदौर में रहे और इसके बाद उन्हें कैप्टेन टिंडल के साथ दतिया भेजा गया। गोबिंद सिंह को हर निर्णय में टिंडल की सलाह मानने के लिए प्रतिबंधित किया गया और कहा गया कि यदि उन्होंने टिंडल और पोलिटिकल एजेंट की सलाह नहीं मानी तो भविष्य में किसी पूर्वापेक्षा की आवश्यकता नहीं होगी। (18)
३१ जुलाई १९१४ को गोबिंद सिंह दतिया आ गए और १ अगस्त १९१४ को दतिया में एक दरबार आयोजित किया गया जिसमें पॉलिटिकल एजेंट ने घोषणा की-
The Viceroy has been graciously pleased to restore to Your Highness under certain conditions, which have been carefully recorded and explained and willingly accepted by you, the authority and powers of a ruling Chief......I formally place Your Highness in charge of your state subject to those conditions...(19)बोनसँक्वेट की रिपोर्ट असंदिग्ध रूप से आशावादी थी, अत; उसकी रिपोर्ट के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने दिसंबर १९१५ में गोबिंद सिंह पर लगे प्रतिबंधों में ढील दे दी इसीलिए जुलाई १९१५ में कप्तान टिंडल छुट्टी पर चला गया था,फिर उसे दतिया नहीं बुलाया गया। ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास हो गया कि अब गोबिंद सिंह के चरित्र में पर्याप्त सुधार हो गया है । लेकिन ब्रिटिश सरकार का यह विश्वास अंतिम नहीं हो सका। गोबिंद सिंह ने गद्दी पर बैठते ही जिन घटनाओं को अंजाम को दिया था, उनकी पुनरावृति भारत के स्वतंत्र होने तक यथावत बनी रहीं। उनके अधिकार कई बार छीने और लौटाए गए।