वीरांगना चम्पावती
-सोम त्रिपाठी
बुंदेलखंड की किवदंतियों पर आधारित कहानियों और नाटकों में महारानी चम्पावती का चरित्र एक ऐसी वेबस नारी के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो अपने सतीत्व को प्रमाणित करने के लिए अपने पुत्र समान देवर हरदौल को विष दे देती है। लेकिन लक्ष्मणसिंह गौर ने अपनी पुस्तक "ओरछा का इतिहास" में चम्पावती और हरदौल की आयु में अत्यधिक अंतर देखकर, चम्पावती ने विष दिया, इसे नकार दिया है। इतिहास के साधन, सामग्री और प्रमाण जो लेख रूप और भौतिक अवशेषों के रूप में हैं, से भी यह प्रमाणित नहीं होता कि महारानी चम्पावती ने विष दिया था। स्लीमन ने १८१७ में लार्ड हास्टिंग्स के बुंदेलखंड आगमन के समय हैजा फ़ैल जाने पर, हैजा के नए देवता के रूप में हरदौल की पूजा की परम्परा प्रारम्भ होने का उल्लेख किया है। (1) इम्पीरियल गज़ेटियर ऑफ़ इंडिया में जुझारसिंह ने विष दिया था का उल्लेख है।(2) ओरछा स्टेट गज़ेटियर में सब से पहले, चम्पावती के चरित्र पर संदेह होने पर जुझारसिंह के आदेश से चम्पावती ने हरदौल को विष दिया था, इस बात का उल्लेख किया गया है। इस तरह १९वी शताब्दी में हरदौल की कथा किवदंती के रूप में अस्तित्व में आई। यह श्रद्धा, भक्ति और विश्वास का विषय होने के कारण इसमें निरंतर चामत्कारिक कथाओं का समावेश होता रहा।
चम्पावती का जन्म मैदवारा के जागीरदार हरिसिंह परमार के घर १५७२ ई. में हुआ था। उनका बचपन का नाम पार्वती था। १५८८ ई. में उनका विवाह ओरछा के महाराजा मधुकरशाह के पौत्र जुझारसिंह के साथ हुआ, तब परम्परा के अनुसार ससुराल में उनका नाम चम्पावती रखा गया, इसीलिए पार्वती की जगह चम्पावती नाम प्रचलित हो गया।
१६०८ ई. में हरदौल के जन्म के बाद उनकी माँ गुमान कुँअरि का निधन हो गया था, ऐसी स्थिति में हरदौल के पालन पोषण का भार चम्पावती के कन्धों पर आ गया। उस समय ओरछा का राजा रामशाह जहांगीर की कैद में था । जहांगीर ने उसे २२ नवम्बर १६०९ (२५ शा-अ-वन १०४४ हिज़री) को इस शर्त पर छोड़ा कि वह वीरसिंह देव को ओरछा का राज्य सौंप कर चंदेरी चला जायेगा ।(3) वीरसिंह देव ओरछा के क़िले में जनवरी १६१० ई. के लगभग आये होंगे। इस अवधि में उनका परिवार दतिया में रहा और यहीं पर हरदौल का जन्म हुआ था।
लोक में प्रचलित है कि हरदौल का जिस समय जन्म हुआ, उसी समय चम्पावती के पुत्र विक्रमाजीत की पत्नी कमल कुँअरि के भी लड़का पैदा हुआ था। चम्पावती ने हरदौल को दूध पिलाने का दायित्व कमल कुँवरि को सौंपा। रिश्ते में हरदौल कमल कुँअरि के ककिया ससुर लगते थे, इसीलिए जब हरदौल को उनके पास लाया जाता था तब परम्परा के अनुसार पहले सूचना दी जाती थी कि "काका जू पधार रहे हैं"। कमल कुँअरि सम्मान सहित घूँघट डाल कर खड़ी हो जाती थीं और हरदौल को गोद में लेकर दूध पिलातीं थी। वात्सल्य का इससे बड़ा उदाहरण कहीं देखने को नहीं मिलता। चम्पावती ने हरदौल को अपने बच्चे की तरह पाला-पोषा। हरदौल भी चम्पावती को माँ की तरह पूजते थे। चम्पावती ने हरदौल को विष दिया यह जुझारसिंह को कलंकित करने का एक प्रायोजित षड्यंत्र मात्र है, इसके अलावा कुछ नहीं।
बुंदेलखंड पहाड़ी और जंगली इलाका होने के कारण हमेशा बाह्य आक्रमणों से सुरक्षित रहा है। १५७७ ई. में अकबर ने नरवर-करैरा के रास्ते ओरछा पर आक्रमण करने का दुःसाहस किया था। सतारा नदी के किनारे हुए युद्ध में मुगलों को भयंकर हानि उठानी पड़ी। नुकसान बुंदेलों का भी हुआ था मधुकरशाह का लड़का होरलदेव मारा गया था, लेकिन मुग़ल ओरछा नहीं जीत पाये थे। मजबूर होकर उन्हें बराबरी का समझौता करना पड़ा था। इस समझौते में अकबर को न तो डोला मिला था और न ही हर्जाना।(4) १५९२ ई. में वीरसिंह देव को बंटबारे में बडौनी का हिस्सा मिलने के बाद उसने मुगलों के सीमावर्ती इलाकों को जीता और अकबर के प्रिय मंत्री अबुल फजल का वध कर दिया, परन्तु अकबर की सेना उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाई थी।(5)
उक्त स्थिति को शाहजहाँ अच्छी तरह जनता था इसीलिए उसने १६३५ ई. में ओरछा पर आक्रमण करने के लिए बुंदेला राज परिवार की फूट का फायदा उठकर देवीसिंह को आक्रमण करने का आदेश दिया। देवीसिंह का साथ देने के लिए ओरछा के राजा जुझारसिंह के भाई भगवान राव और पहाड़सिंह भी आ गए क्योंकि ये दोनों उत्तराधिकार की दौड़ में असफल होने के बाद देवीसिंह के साथ मुग़ल सेवा में पूर्व से ही थे। शाहजहाँ ने देवीसिंह को ओरछा का राज्य देने तथा भगवन राव और पहाड़सिंह को मनसब देने का लालच दिया था। शाहजहाँ ने प्रतीकात्मक रूप से अल्पवयस्क औरंगज़ेब को युद्ध की कमान सौंपी थी। औरंगज़ेब ने सुरक्षा की दृष्टि से युद्ध क्षेत्र से दूर चांदपुर सुनारी में और मुगल सेनापति खान दौरान ने भाण्डेर (इंदरगढ़(6)) में पड़ाव डाल कर, युद्ध करने के लिए देवीसिंह आदि को आगे भेज दिया था ।
कुम्हेड़ी के पास ग्राम जुझारपुर के मैदान में जुझारसिंह और देवीसिंह की सेना में युद्ध हुआ जिसमें जुझारसिंह की पराजय हुई। इस पराजय का मुख्य कारण बुंदेला राज परिवार के लोगों की गद्दारी थी, इस कारण मजबूर होकर उसको अपना राज्य ही नहीं बुंदेलखंड को भी त्याग कर मुग़ल सीमा के बाहर गोलकुंडा भाग जाने का निर्णाय लेना पड़ा ।(7) जुझारसिंह अक्टूबर १६३५ को ओरछा से धमोनी, चौरागढ़ होता हुआ गोलकुंडा की ओर रवाना हो गया।
खान दौरान को जब जुझारसिंह के भाग जाने की सूचना मिली तो वह पीछा करने के लिए मुग़ल शासित प्रदेश करैरा, चंदेरी होता हुआ सिरोंज पहुँचा जहाँ अब्दुल्ला खां फ़िरोज़ ज़ंग और खानजहाँ सैयद मुजफ्फर खान (करैरा के जागीरदार) उसका इंतजार कर रहे थे। उसने मुज़फ्फर खान को विजित प्रदेश की व्यवस्था देखने के लिए ओरछा भेज दिया और स्वयं अब्दुल्ला खां को साथ लेकर धमोनी होता हुआ चौरागढ़ को रवाना हो गया।(8)खान दौरान जब चौरागढ़ पहुंचा तब एक चौधरी ने सूचना दी कि १५ दिन पूर्व जुझारसिंह अपने परिवार को लेकर २००० घुड़सवार, ४००० सैनिक और ६० हाथियों सहित दखिन की ओर चला गया है। यह खबर सुनते ही वह तेज रफ़्तार से जुझारसिंह का पीछा करने के लिए चल पड़ा।(9)
जब खान दौरान जुझारसिंह के काफले के करीब पहुंचा तो जुझारसिंह ने शीघ्रता से चम्पावती के नेतृत्व में हाथियों पर लदा खजाना और राज परिवार की महिलाओं को गोलकुंडा की ओर रवाना कर दियाऔर स्वयं मुकाबला करने के लिए रुक गया। स्थिति की गंभीरता को देखकर रानी चम्पावती ने राजपरिवार की समस्त महिलाओं को शस्त्रों से सुसज्जित कर एक महिला-सैन्य टुकड़ी का रूप दिया और गोलकुंडा की ओर चल पड़ीं।
जुझारसिंह का उद्देश्य था कि जब तक चम्पावती का काफिला गोलकुंडा सीमा में न पहुँच जाये तब तक खान दौरान को रोका जावे। इसीलिए वह पूरी ताकत के साथ युद्ध करने लगा लेकिन जब दोनों सेनायें युद्ध कर रही थीं उसी समय खान दौरान के जासूसों ने चम्पावती के रवाना होने की खबर दी तो उसने चम्पावती को पकड़ने के लिए अपना बड़ा लड़का सैयद मुहम्मद को ५०० घुड़सवार और कुछ अधिकारीयों के साथ भेजा।(10)
गोलकुंडा कुछ ही दूर रह गया था तभी चम्पावती ने पीछे मुग़ल घुड़सवारों को आता हुआ देखा। महिलाओं ने तलवारें निकाल कर मुकाबला करने के लिए मोर्चा संभाल लिया और धुड़सवारों का सामना होने पर बहादुरी से युद्ध करने लगीं। सैयद मुहम्मद की टुकड़ी राजपरिवार की महिलाओं के सामने टिक नहीं पा रही थी तभी खान दौरान अपनी सेना के साथ वहां आ गया। अब मुकाबला बराबरी का नहीं था, परन्तु परिणाम की चिंता किये बगैर वे सब युद्ध करतीं रही जब तक घायल होकर जमीन पर न गिर पड़ीं। इस युद्ध में चम्पावती को भाले के दो गहरे घाव लगे जो बाद में उनकी मृत्यु का कारण बने।(11)
महिलाओं के साथ युद्ध में जीत हो अथवा हार दोनों परिणाम शर्मनाक होते हैं। इसीलिए मुगलों का दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने बादशाहनामा में इस युद्ध को मुग़ल सेना के "बचाओ अभियान" के रूप में वर्णन किया है। उसने लिखा है मुग़ल सेना ने राजपरिवार की महिलाओं को बचा लिया इसके पहले कि वे हिंदुस्तान की परम्परा के अनुसार जौहर करें। लाहौरी के उक्त कथन में बजन नहीं है क्यों कि आक्रमण होने पर और वो भी रास्ते चलते। ऐसी स्थिति में सबसे पहले मुकाबला करके अपना बचाव किया जाता है न कि जौहर और न आपस में एक दूसरे का क़त्ल।
Ref.-
1.Rambles and recollection of an Indian official. By-W.H. Sleeman. P.210, 211,212,303
2.Imperial Gazetteer of India. Vol. 7 P.243
3.Tuzak-I-Jahangiri.Translated by Majar David Price. 4th year of reign.
4.Akabar nama of Shekh Abu-L-Fazl.Translate by- H.M.Elliot.
5.Murder of Abu-L-Fazl. By-Asad Big "Asad" Qazvini Translate by-H.M. Elliot.
6.Old Map of Datia. M.P.Tourist Road Atlas. Pub.-Indian Map Service. Jodhpur.
7.The History of India. By- H.M.Elliot. Vol-7 Section15.
8. Massir-Ul-Umara, Vol. 1 P.102
9. 1o.11. The History of India By-H.M.Elliot. Vol. 7 Section 15.
सोम त्रिपाठी
-विवेकानंद चौक, बड़ा बाजार, दतिया
फ़ोन- ०७५२२-४००९९४
चम्पावती का जन्म मैदवारा के जागीरदार हरिसिंह परमार के घर १५७२ ई. में हुआ था। उनका बचपन का नाम पार्वती था। १५८८ ई. में उनका विवाह ओरछा के महाराजा मधुकरशाह के पौत्र जुझारसिंह के साथ हुआ, तब परम्परा के अनुसार ससुराल में उनका नाम चम्पावती रखा गया, इसीलिए पार्वती की जगह चम्पावती नाम प्रचलित हो गया।
१६०८ ई. में हरदौल के जन्म के बाद उनकी माँ गुमान कुँअरि का निधन हो गया था, ऐसी स्थिति में हरदौल के पालन पोषण का भार चम्पावती के कन्धों पर आ गया। उस समय ओरछा का राजा रामशाह जहांगीर की कैद में था । जहांगीर ने उसे २२ नवम्बर १६०९ (२५ शा-अ-वन १०४४ हिज़री) को इस शर्त पर छोड़ा कि वह वीरसिंह देव को ओरछा का राज्य सौंप कर चंदेरी चला जायेगा ।(3) वीरसिंह देव ओरछा के क़िले में जनवरी १६१० ई. के लगभग आये होंगे। इस अवधि में उनका परिवार दतिया में रहा और यहीं पर हरदौल का जन्म हुआ था।
लोक में प्रचलित है कि हरदौल का जिस समय जन्म हुआ, उसी समय चम्पावती के पुत्र विक्रमाजीत की पत्नी कमल कुँअरि के भी लड़का पैदा हुआ था। चम्पावती ने हरदौल को दूध पिलाने का दायित्व कमल कुँवरि को सौंपा। रिश्ते में हरदौल कमल कुँअरि के ककिया ससुर लगते थे, इसीलिए जब हरदौल को उनके पास लाया जाता था तब परम्परा के अनुसार पहले सूचना दी जाती थी कि "काका जू पधार रहे हैं"। कमल कुँअरि सम्मान सहित घूँघट डाल कर खड़ी हो जाती थीं और हरदौल को गोद में लेकर दूध पिलातीं थी। वात्सल्य का इससे बड़ा उदाहरण कहीं देखने को नहीं मिलता। चम्पावती ने हरदौल को अपने बच्चे की तरह पाला-पोषा। हरदौल भी चम्पावती को माँ की तरह पूजते थे। चम्पावती ने हरदौल को विष दिया यह जुझारसिंह को कलंकित करने का एक प्रायोजित षड्यंत्र मात्र है, इसके अलावा कुछ नहीं।
बुंदेलखंड पहाड़ी और जंगली इलाका होने के कारण हमेशा बाह्य आक्रमणों से सुरक्षित रहा है। १५७७ ई. में अकबर ने नरवर-करैरा के रास्ते ओरछा पर आक्रमण करने का दुःसाहस किया था। सतारा नदी के किनारे हुए युद्ध में मुगलों को भयंकर हानि उठानी पड़ी। नुकसान बुंदेलों का भी हुआ था मधुकरशाह का लड़का होरलदेव मारा गया था, लेकिन मुग़ल ओरछा नहीं जीत पाये थे। मजबूर होकर उन्हें बराबरी का समझौता करना पड़ा था। इस समझौते में अकबर को न तो डोला मिला था और न ही हर्जाना।(4) १५९२ ई. में वीरसिंह देव को बंटबारे में बडौनी का हिस्सा मिलने के बाद उसने मुगलों के सीमावर्ती इलाकों को जीता और अकबर के प्रिय मंत्री अबुल फजल का वध कर दिया, परन्तु अकबर की सेना उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाई थी।(5)
उक्त स्थिति को शाहजहाँ अच्छी तरह जनता था इसीलिए उसने १६३५ ई. में ओरछा पर आक्रमण करने के लिए बुंदेला राज परिवार की फूट का फायदा उठकर देवीसिंह को आक्रमण करने का आदेश दिया। देवीसिंह का साथ देने के लिए ओरछा के राजा जुझारसिंह के भाई भगवान राव और पहाड़सिंह भी आ गए क्योंकि ये दोनों उत्तराधिकार की दौड़ में असफल होने के बाद देवीसिंह के साथ मुग़ल सेवा में पूर्व से ही थे। शाहजहाँ ने देवीसिंह को ओरछा का राज्य देने तथा भगवन राव और पहाड़सिंह को मनसब देने का लालच दिया था। शाहजहाँ ने प्रतीकात्मक रूप से अल्पवयस्क औरंगज़ेब को युद्ध की कमान सौंपी थी। औरंगज़ेब ने सुरक्षा की दृष्टि से युद्ध क्षेत्र से दूर चांदपुर सुनारी में और मुगल सेनापति खान दौरान ने भाण्डेर (इंदरगढ़(6)) में पड़ाव डाल कर, युद्ध करने के लिए देवीसिंह आदि को आगे भेज दिया था ।
कुम्हेड़ी के पास ग्राम जुझारपुर के मैदान में जुझारसिंह और देवीसिंह की सेना में युद्ध हुआ जिसमें जुझारसिंह की पराजय हुई। इस पराजय का मुख्य कारण बुंदेला राज परिवार के लोगों की गद्दारी थी, इस कारण मजबूर होकर उसको अपना राज्य ही नहीं बुंदेलखंड को भी त्याग कर मुग़ल सीमा के बाहर गोलकुंडा भाग जाने का निर्णाय लेना पड़ा ।(7) जुझारसिंह अक्टूबर १६३५ को ओरछा से धमोनी, चौरागढ़ होता हुआ गोलकुंडा की ओर रवाना हो गया।
खान दौरान को जब जुझारसिंह के भाग जाने की सूचना मिली तो वह पीछा करने के लिए मुग़ल शासित प्रदेश करैरा, चंदेरी होता हुआ सिरोंज पहुँचा जहाँ अब्दुल्ला खां फ़िरोज़ ज़ंग और खानजहाँ सैयद मुजफ्फर खान (करैरा के जागीरदार) उसका इंतजार कर रहे थे। उसने मुज़फ्फर खान को विजित प्रदेश की व्यवस्था देखने के लिए ओरछा भेज दिया और स्वयं अब्दुल्ला खां को साथ लेकर धमोनी होता हुआ चौरागढ़ को रवाना हो गया।(8)खान दौरान जब चौरागढ़ पहुंचा तब एक चौधरी ने सूचना दी कि १५ दिन पूर्व जुझारसिंह अपने परिवार को लेकर २००० घुड़सवार, ४००० सैनिक और ६० हाथियों सहित दखिन की ओर चला गया है। यह खबर सुनते ही वह तेज रफ़्तार से जुझारसिंह का पीछा करने के लिए चल पड़ा।(9)
जब खान दौरान जुझारसिंह के काफले के करीब पहुंचा तो जुझारसिंह ने शीघ्रता से चम्पावती के नेतृत्व में हाथियों पर लदा खजाना और राज परिवार की महिलाओं को गोलकुंडा की ओर रवाना कर दियाऔर स्वयं मुकाबला करने के लिए रुक गया। स्थिति की गंभीरता को देखकर रानी चम्पावती ने राजपरिवार की समस्त महिलाओं को शस्त्रों से सुसज्जित कर एक महिला-सैन्य टुकड़ी का रूप दिया और गोलकुंडा की ओर चल पड़ीं।
जुझारसिंह का उद्देश्य था कि जब तक चम्पावती का काफिला गोलकुंडा सीमा में न पहुँच जाये तब तक खान दौरान को रोका जावे। इसीलिए वह पूरी ताकत के साथ युद्ध करने लगा लेकिन जब दोनों सेनायें युद्ध कर रही थीं उसी समय खान दौरान के जासूसों ने चम्पावती के रवाना होने की खबर दी तो उसने चम्पावती को पकड़ने के लिए अपना बड़ा लड़का सैयद मुहम्मद को ५०० घुड़सवार और कुछ अधिकारीयों के साथ भेजा।(10)
गोलकुंडा कुछ ही दूर रह गया था तभी चम्पावती ने पीछे मुग़ल घुड़सवारों को आता हुआ देखा। महिलाओं ने तलवारें निकाल कर मुकाबला करने के लिए मोर्चा संभाल लिया और धुड़सवारों का सामना होने पर बहादुरी से युद्ध करने लगीं। सैयद मुहम्मद की टुकड़ी राजपरिवार की महिलाओं के सामने टिक नहीं पा रही थी तभी खान दौरान अपनी सेना के साथ वहां आ गया। अब मुकाबला बराबरी का नहीं था, परन्तु परिणाम की चिंता किये बगैर वे सब युद्ध करतीं रही जब तक घायल होकर जमीन पर न गिर पड़ीं। इस युद्ध में चम्पावती को भाले के दो गहरे घाव लगे जो बाद में उनकी मृत्यु का कारण बने।(11)
महिलाओं के साथ युद्ध में जीत हो अथवा हार दोनों परिणाम शर्मनाक होते हैं। इसीलिए मुगलों का दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने बादशाहनामा में इस युद्ध को मुग़ल सेना के "बचाओ अभियान" के रूप में वर्णन किया है। उसने लिखा है मुग़ल सेना ने राजपरिवार की महिलाओं को बचा लिया इसके पहले कि वे हिंदुस्तान की परम्परा के अनुसार जौहर करें। लाहौरी के उक्त कथन में बजन नहीं है क्यों कि आक्रमण होने पर और वो भी रास्ते चलते। ऐसी स्थिति में सबसे पहले मुकाबला करके अपना बचाव किया जाता है न कि जौहर और न आपस में एक दूसरे का क़त्ल।
Ref.-
1.Rambles and recollection of an Indian official. By-W.H. Sleeman. P.210, 211,212,303
2.Imperial Gazetteer of India. Vol. 7 P.243
3.Tuzak-I-Jahangiri.Translated by Majar David Price. 4th year of reign.
4.Akabar nama of Shekh Abu-L-Fazl.Translate by- H.M.Elliot.
5.Murder of Abu-L-Fazl. By-Asad Big "Asad" Qazvini Translate by-H.M. Elliot.
6.Old Map of Datia. M.P.Tourist Road Atlas. Pub.-Indian Map Service. Jodhpur.
7.The History of India. By- H.M.Elliot. Vol-7 Section15.
8. Massir-Ul-Umara, Vol. 1 P.102
9. 1o.11. The History of India By-H.M.Elliot. Vol. 7 Section 15.
सोम त्रिपाठी
-विवेकानंद चौक, बड़ा बाजार, दतिया
फ़ोन- ०७५२२-४००९९४